22 जनवरी को भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी अपना फैसला नागरिकता संशोधन कानून पर सुना देगा यदि फैसला इस कानून को असंवैधानिक करार देने वाला आता है तब बात और है और यदि यह फैसला इसके पक्ष में जाता है तो फिर एक बड़ा मसला खड़ा होने वाला है आखिर इन आंदोलनों का आखरी पड़ाव क्या होगा?
यह एक यक्ष प्रश्न बनकर उभरा है कि यदि कोर्ट ने इस कानून के पक्ष में फैसला दिया तो हम भारत के लोग क्या करेंगे ?इसके लिए हमारे पास क्या रणनीति है? जवाब अभी वही बचकाना है कि हम तब तक आंदोलन करेंगे धरने पर बैठे रहेंगे जबतक यह कानून वापिस नहीं लिया जाता अगर एक समय के लिए इस बात पर विश्वास कर लिया जाए तो भी यह सवाल होगा कि क्या यह जोश लगातार बरकरार रहेगा जवाब न में भी हो सकता है।
तो फिर इसपर विमर्श क्यों नहीं हो रहा है कि आगे क्या हो जिससे भारत की अखंडता इसकी गंगा जमुनी तहजीब और देश के संविधान को बचाया जा सके।बुद्धिजीवी वर्ग को इस ओर गंभीरता से सोचना चाहिए जोकि नहीं हो रहा है और हमारा विरोधी ख़ामोशी से अपनी चाल चल रहा है जिसपर हमारी निगाह भी नहीं है हमें इस कानून के पक्ष में विफल होते प्रदर्शन और रैलियां ही नजर आ रही है मगर हमारी सोच और निगाह वहां नहीं पहुंच रही है जहां काम हो रहा है।
जहां लोग किसी न किसी शहर में किसी खास जगह पर सिर्फ धरने पर बैठे हैं वहीं ग्रामीण इलाकों में लोग सिर्फ इन खबरों मात्र को सुन और देख रहे हैं और उनके लिए यह खबर मात्र ही है ,जबकि इन कानूनों के समर्थन करने वाले बड़ी चालाकी से ग्रामीण भारत में घुस गए हैं और सीधे साधे लोगों को बड़ी चालाकी से अर्ध सत्य कह कर अपने पक्ष में खड़ा कर रहे हैं ।विरोध प्रदर्शन में अब हर जगह मुसलमान बहुतायत संख्या में नजर आ रहे हैं ज़्यादातर जगह बुरखा पहने महिलाओं और दाढ़ी वाले पुरषों की तस्वीरे दिख रही है जोकि आंदोलन के विरोधी की ताकत बन रही है।
पूरी पिक्चर से पूर्वोत्तर के विरोध को गायब कर दिया गया है और सोशल मीडिया में भी वह विमर्श का विषय नहीं बचा है जो भी चिंता का विषय है क्योंकि वहां चल रहे बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भी इस आंदोलन का हिस्सा हैं लेकिन उनमें क्योंकि कोई धार्मिक पहचान जाहिर नहीं हो रही इसलिए वह सबसे ताकतवर हैं ,बंगाल में हो रहे प्रदर्शन में ममता बनर्जी का चेहरा ही दिख रहा है जबकि वहां जिस तरह की भीड़ सड़कों पर है उसका भी कोई धार्मिक चेहरा नहीं है लेकिन ममता ही छाई हुई हैं जो जहां उन्हें राजनैतिक बल दे रहा है वहीं आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर कर रहा है।
मुंबई में होने वाले प्रदर्शन को भी बहुत ज़्यादा स्पेस नहीं मिल रहा जो चिंता का विषय है जिसपर गौर किया जाना चाहिए ,सिर्फ इतना ही नहीं अब आंदोलनकारियों को धर्मगुरुओं और धार्मिक संस्थाओं से भी होशियार होना पड़ेगा क्योंकि अब यह इसे पूरी तरह धार्मिक रंग देने की तैयारी कर चुके हैं जहां अभी तक यह अगुवाई के लिऐ नहीं अाए लेकिन अब तरह तरह के ऐलान की बाढ़ आने वाली है कभी जेल भरो के तौर पर कभी भारत बंद कभी कुछ ताकि किसी भी तरह से आंदोलन पटरी से उतर जाए इस पर भी पैनी निगाह रखनी चाहिए ।
आंदोलन के मंचों पर क़ौम का दर्द गा कर पैसा बटोरने वाले मुशायरा आर्टिस्ट काबिज होने लगे हैं जो यह बताता है कि हम जागे तो हैं लेकिन अभी नशा उतरा नहीं है,इससे बचना होगा और मंचों पर उन लोगों को जगह देनी होगी जो वंचित और सोशित हैं लेकिन उनमें सोच भरी हुई है अधिक से अधिक दलित चिंतकों को अवसर दिया जाना चाहिए।
ग्रामीण भारत में जहां अर्ध सत्य पहुंच रहा है वहां पूरा सच पहुंचाने की मुहिम चलनी चाहिए गावों में नुक्कड़ नाटक और नुक्कड़ सभाओं का आयोजन वक़्त की जरूरत है जिसके माध्यम से पूरे सच को बताया जाए झूठ को सच से जवाब दिया जाना चाहिए,पूरे आंदोलन से एक राष्ट्रीय टीम का गठन किया जाना चाहिए और फिर राज्य स्तर पर इसका विस्तार करते हुए ब्लॉक लेवल तक इसे ले जाना चाहिए टीम का चयन लोकतांत्रिक तरीके से किया जाना चाहिए जिसमें बुद्धिजीवी वर्ग से महिला पुरुष एवम् समाज के सभी वर्गो के लोग हों जो इस राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा तय करें ताकि इसमें वह धार पैदा हो कि एक आवाज़ पर पूरा देश एक साथ राष्ट्रगान गाने लगे,जिसका आभाव भी इस आंदोलन की धार कम कर रहा है,जहां आंदोलन की शुरुआत में नेतृत्व का न होना ज़रूरी था और फायदेमंद था वहीं अब इसका होना है,क्योंकि अब इन सभी लोगों को जिन्होंने साझा नए नेतृत्व को खड़ा किया है एक सूत्र में पिरो दिया जाना चाहिए ताकि हम अपने देश की खूबसूरती इसके संविधान को बचा सकें।
इस आंदोलन में अब नई चीज़ों का जुड़ाव भी ज़रूरी है इस समय देश के पारंपरिक व्यापार के तरीके को ऑनलाइन कंपनियों ने करारा झटका दिया है यदि एक साथ इनके बहिष्कार की बात लेकर पारंपरिक व्यापार करने वालो तक जाया जाए,हर जगह अलग अलग मांगो को लेकर लोग आंदोलन कर रहे हैं उन तक पहुंच कर उनकी मांग को अपने साथ जोड़ा जाए और उन्हें अपने संगठन में जगह दी जाए,कहीं आस्थाई शिक्षकों का आंदोलन है,कहीं छात्रों का आंदोलन है कहीं किसानों का कहीं महिलाओं का सभी को एकजुट किया जाना चाहिए और एक रूपरेखा तय की जानी चाहिए वरना यह सवाल हमारे सामने खड़ा है कि इस धरना प्रदर्शन से बात नहीं बनी तो फिर क्या?
यहीं एक बात का और ख्याल रखा जाना चाहिए कि हम हर जगह बड़ी वालेंटियर की टीम तैयार करें और किसी भी कीमत पर आंदोलन को अहिंसक रखें धर्मगुरुओं को दूर रखें अगर वह कुछ करना चाहते हैं तो अपना समर्थन बाहर से दें लेकिन मंच से दूर रहें।
यूनुस मोहानी
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