श्री कृष्ण हिन्दू धर्म में आराध्य हैं लेकिन सूफियों का उनसे प्रेम किसी से छुपा नहीं, और कभी  धर्म गुरुओं ने सूफियों के इस प्रेम पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की. आज के भारत में इसको उजागर करना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि जिस तरह देश में नफरत की बयार बह रही है उसे रोकने के लिए हमारे पास हमारी साँझी गंगा जमुनी संस्कृति है, भारत भूमि इसी लिए धन्य है.

मौलाना हसरत मोहानी यह नाम अक्सर लोग जानते हैं जो हसरत को नहीं भी जानते वह भी उनकी मशहूर ग़ज़ल “चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है”. गुनगुनाते हैं, या फिर पराधीन भारत को स्वतंत्र कराने के लिए उनका दिया गया नारा “इंक़लाब जिंदाबाद” लगाते हैं. हसरत का असली नाम सय्यद फज़लुल हसन था. मोहान के एक सय्यद घराने में पैदा हुए, जो हज़रत ए इमाम मूसा काज़िम के वंशज थे. हसरत के बारे में मिलता है कि वह श्री कृष्ण को अल्लाह का रसूल मानते थे जैसा कि मिर्ज़ा मज़हर जाने जाना रहमतुल्लाहि अलैहि जो कि मुजद्दिदी नक्शबंदी सिलसिले के बुज़ुर्ग गुज़रे हैं का मत है, उनके अनुसार शताब्दियों पहले भारत के धरती पर कृष्ण के रूप में ईश दूत आऐ जिसके लिए वह क़ुरआन की सूरत सुर: यूनुस की आयत नम्बर 10 को और सुर: अल नहल की आयत नम्बर 36 को आधार बनाते हैं. सुरह यूनुस में अल्लाह फरमाता है “और हर उम्मत का ख़ास एक रसूल हुआ है” जबकि सुरह अल नहल में आता है कि “हमने हर समुदाय में कोई ना कोई रसूल भेजा”. जबकि हसरत का कृष्ण से लगाव सिर्फ बौद्धिक या वैचारिक स्तर पर नहीं था और ना सिर्क बाल गंगाधर तिलक और गीता का असर उन पर था, हसरत श्री कृष्ण से भावनात्मक रूप से जुड़े थे जिसका उदाहरण अरबिंदु घोस द्वारा श्री कृष्ण पर अपने अनुभव को जब लिखा गया तो हसरत ने अपने रिसाले “उर्दू ए मोअल्ला” में एक नोट छापा जिसमें उन्होंने लिखा कि बाबू अरबिंदु घोस ने जेल से बाहर आने के बाद जब बताया कि उन्हें श्री कृष्ण के दर्शन हुए हैं तो सब ने कहा कि यह एक कपोल कल्पित कहानी है लेकिन मुझे इसमें कोई शक नहीं कि उनका कथन सत्य है क्योंकि मैंने जब जब श्री कृष्ण का नाम लिया है उस आनंद को अनुभव किया है. हसरत के बारे में मौलाना के परम् मित्र अब्दुल शकूर जो कि कानपुर के एक कॉलेज में प्रिन्सिपल थे लिखते हैं कि “हसरत से जब उनकी आस्था के बारे में बात की तो उन्होंने कहा, मेरा अक़ीदा दो मज़बूत स्त्म्भो  पर आधारित है, एक यह कि “अल इश्क़हू अल्लाह व अल हुस्नुहू अल हक़” अर्थात: प्रेम ही इश्वर है और सत्य ही सुंदर है, और दूसरा “दिल बयार व दसत बकर” अर्थात: अपने दिल को अपने महबूबे हक़ीक़ी के साथ जोड़े रखो और हाथों को खिदमते खल्क़ में”. यही दोनों विचार हसरत की पूरी ज़िन्दगी में दिखाई देते हैं और उनके कृष्ण प्रेम में भी. कृष्ण के असीम भक्त हसरत मोहानी ने कृष्ण प्रेम में डूब कर कई नज़्म और गीत लिखे जिन में कुछ अवधि में और अधिकतर उर्दू में हैं. हसरत ने कृष्ण प्रेम में पहली पंक्ति 26 सितम्बर 1923 में लिखी. वह श्री कृष्ण का नाम बड़े आदर के साथ हज़रत श्री कृष्ण अलैहिर्रहमा कर लेते थे जो कि मुस्लिम समाज में नबी के बाद उनके सहाबा या फिर वलियों के साथ इस्तेमाल किया जाता है. हसरत कहते थे कि कृष्ण भक्ति के प्रेम का मार्ग अपने पीर से मिला है और यह हर पीर का मार्ग है. वह इसके लिए हज़रत अब्दुर रज्ज़ाक़ बाँसवी रहमतुल्लाहि अलैहि का ज़िक्र करते हैं. मौलाना इस प्रकार अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं:
“मसलके इश्क़ है परस्तिशे इश्क़, हम नहीं जानते अज़ाब व सवाब”
श्री कृष्ण के बारे में लिखते हुए हसरत श्याम रंग में रंगे दिखाई देते हैं:
“आँखों में नूर ए जलवा ए बे कैफ व कम है ख़ास,
जब से नज़र से उनकी निगाहे  करम  है  ख़ास,
कुछ हम को भी अता हो कि ऐ  हज़रत ए कृष्ण
इक्लीमे  इश्क़  आप के जेरे क़दम  है  ख़ास,
हसरत  की भी  क़ुबूल  हो  मथुरा  में  हाज़िरी,
सुनते  हैं आशिक़ों पे तुम्हारा  करम  है  ख़ास ”

मौलाना ने यूँ तो ग्यारह हज किऐ और हर बार हज से आने के बाद वह सबसे पहले मथुरा गऐ, उनका मानना था कि उनका हज तब तक क़ुबूल नहीं होता जब तक वह कृष्ण के नगर में नहीं पहुँचते, हसरत का कृष्ण को ले कर ये प्रेम भारत में सूफी परंपरा का बीसवीं सदी का पड़ाव था, उनसे पहले सोलहवीं शताब्दी में मलिक मोहम्मद जाइसी, सय्यद मंझु राजगिरी जैसे सूफी कृष्ण भक्ति में रंगे दिखते हैं, हसरत पर मौलाना फज़लुर्रहमान गंज मुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैहि का असर भी दिखता है, मौलाना फज़लुर्रहमान ने क़ुरआन का अनुवाद जब अवधि भाषा में करना शुरू किया तो उसमें जिस शब्दावली का प्रयोग किया वह हसरत के कलाम में भी दिखती है, गंज मुरादाबाद मोहान से थोड़ी दूर स्थित एक पुराना कस्बा है. यही नहीं सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी में भी मोहान के पास स्थित बहुत पुराने कस्बे काकोरी में जहाँ क़लंदरी परंपरा के बुज़ुर्ग हैं, उनमें बुज़ुर्ग शाह बासित अली क़लंदर रहमतुल्लाहि अलैहि ने भी अवधि में कृष्ण भक्ति में लिखा, जिसका उल्लेख उनके बेटे शाह तुराब अली क़लंदर रहमतुल्लाहि अलैहि करते हैं और ख़ुद शाह तुराब ने भी कृष्ण भक्ति में गीत लिखे, शाह तुराब अपने पिता के बारे में लिखते हैं कि एक बार भक्ति मार्ग पर चलते हुए वह इतना ज़्यादा भावुक हो गए कि ख्याल आया कि जीवन ही समाप्त कर लूँ, तभी स्वप्न में श्री कृष्ण पधारे और उन्होंने उन्हें ज्ञान दिया कि तुम अमर हो क्योंकि शहीद मरते नहीं, तुम्हारा हृदय पवित्र है और प्रेम में पगा हुआ है, तुम स्थान,समय,जन्म और मृत्यु के भय से आज़ाद हो, फिर शाह काज़िम रहमतुल्लाहि अलैहि ने लिखा:
भूल गई हमरी सुद उनका, जब से राजा कीन घुसय्याँ
हमरी संग खेलत गोकुल्मां, तो सब बिसर गयीं लरकय्याँ
हमरी अन्ख्याँ चुभत है वे दिन, जे दिन रहे करवट गय्याँ
सुध आवत व दिन कि अव्धो, जरत सदा हृदय की सय्याँ
आदि से शाम रहे काज़िम संग, अंत बनी रहे यहे गुय्याँ

जबकि शाह तुराब अली क़लंदर रहमतुल्लाहि अलैहि लिखते हैं:

“ जा रे कन्हय्या मैं गारी देत हूँ, काहे खरा मोरे तीर
अपनी तो पग बचाए रखत है, मोरा भिजोवत चीर
अपना तो मुख मोह से ओत राखत है, मुख मोरे मलत है अबीर
देख तुराब केहूँ की ना मानत, ऐसो है शाम शरीर ”

शाह तुराब अली क़लंदर रहमतुल्लाहि अलैहि का यह भक्ति रंग भारतीय सूफी परंपरा में शाह लतीफ़, बुल्ले शाह,लल्लन फक़ीर सब में क्षेत्रीय भाषाओँ में लिखे गए उनके कालम में मिलता है, हसरत का कृष्ण प्रेमी रूप इसी परंपरा का है जो सूफी संतों ने राह अपनाइ, हसरत भी उसी के राही हैं,और यह चिश्ती, क़ादरी सिलसिले में शाह अब्दुर्रहमान के कलाम में, शाह अब्दुर्रज्ज़ाक बांस्वी के कर्म में, कलंदरी सिलसिले के शाह काज़िम और शाह तुराब की रचनाओं में साफ़ दिखाई देता है, यही नहीं यह परंपरा शाह वारिस अली शाह में भी नज़र आती है और हसरत इस संस्कृति के बीसवीं शताब्दी में वाहक हैं, वह लिखते हैं:

“ कहाँ क्या रहे गिरदारी औरन मिल सुध भूल हमारी
रोवत धोवत तड़पत, बिलखत बिरह की रैन गई क ट सारी
जिया ना जाए बरखा रुत हसरत, देख बदरिया कारी”
वह आगे लिखते हैं:
बिरहा की रैन कटे न पहर, सूनी नगरिया पड़ी उजार
कासे कही नहीं चैन बनवारी बिना, रोए कटे सारी रैन मुरारी बिना
कोऊ जतन जिया धीर ना धरे, नींद ना आवे नैन गिरधारी बिना
देख सखी कोऊ चीनहत नाही, अस हसरत खो गईन बनवारी बिना

  • हसरत का कृष्ण भक्ति में लिखा गया कलाम भारत की उस साँझी विरासत का आइना है जिसके बिना यह देश नहीं रह सकता, भक्ति में शक्ति का रूप है इसीलिए हसरत कहते हैं:
    पढ़िए इसके सिवा न कोई सबक़,
    खिदमत ए खल्क़ -ओ- इश्क़ –ए- हज़रत ए हक़
  • लेकिन जहां हसरत एक कृष्ण प्रेमी हैं वहीं देशप्रेम का जज्बा भी देखते बनता है ब्रिटिश प्रेस एक्ट के तहत जेल जाने वाले पहले पत्रकार मौलाना हसरत मोहानी , इंकलाब ज़िंदाबाद का ओजस्वी नारा देने वाले हसरत ,पूर्ण स्वराज की सर्वप्रथम मांग करने वाले हसरत को देश ने भुला दिया आज उनकी पुणयतिथि पर हमारी यही श्रद्धांजलि है कि हम इस परंपरा को आगे ले चले।

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