आज जिस तरह सरकारी तंत्र संविधान और कानून को ताक पर रख कर अपनी मनमानी पर उतारू है उसने यह सवाल पैदा कर दिए हैं कि आखिर इससे देश को किस तरह के परिणाम मिलेंगे ? आज जिस तरह पुलिसिया दमन बुलडोजर को अपनी ताकत बना कर सड़कों पर नंगा नाच कर रहा है उसने पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है ।
भारतीय न्याय व्यवस्था में सबको न्याय के समक्ष समान होने की बात भारतीय संविधान करता है लेकिन जिस तरह सरकार स्वयं अदालत बन गई है और पुलिस जज उसने इस प्राथमिक सिद्धांत को ही समाप्त कर दिया है भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 में कहा गया है “राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के सामान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। ” यह शब्द संविधान के हैं और अब नजर उठाइए बुलडोजरीकरण की कार्यवाही की तरफ आपको क्या दिखाई देता है ?
आपने सुना होगा एक शब्द होता है मुल्जिम और एक मुजरिम यानी आरोपी और अपराधी कोई आरोपी अपराधी है कि नहीं इसे तय करने का अधिकार साक्ष्यों के आधार पर अदालत को है और तब तक आरोपी को अपराधी नहीं कहा जा सकता हालांकि उसे कुछ संज्ञेय अपराधों के मामले में निरुद्ध किया जा सकता है लेकिन तब तक आरोपी को अदालत पूरा मौका देती है कि वह अपनी बेगुनाही साबित करे और ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करे जिससे उसे आरोपमुक्त करार दिया जा सकता है यह है न्यायिक प्रक्रिया चाहे अपराध कितना भी जघन्य क्यों न हो लेकिन अदालत आरोपी को बचाव के मौके प्रदान करेगी क्योंकि यह सिद्धांत है कि चाहे 100 अपराधी बच जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक सामानता के अधिकार की बात की गई है लेकिन जिस तरह से बुलडोजर को भारतीय राजनैतिक पटल पर चित्रित किया जा रहा है उसने यह इशारा दे दिया है कि सत्ता ही तय करेगी कौन अपराधी है और कौन निर्दोष जिसे शासन और प्रशासन अपराधी घोषित कर देगा उसे तुरंत सज़ा भी दी जायेगी क्योंकि सरकार को अब “जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड ” अर्थात न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है के सिद्धांत को बेहतर समझ लिया है और उसने अदालतों पर बोझ कम करने की ठान ली है ।
वैसे भारत के न्यायालयों पर बड़ा बोझ है लिहाजा सरकार माननीय न्यायधीशों पर अतरिक्त बोझ नहीं डालना चाहती लेकिन अब बड़ा सवाल यह भी है कि यदि आम जनमानस ने भी न्यायालयों पर अतरिक्त बोझ न डालने की पड़ रही परंपरा का अनुसरण कर लिया तो क्या होगा ?हालांकि अभी देश के नागरिकों का भारत के संविधान और अदालतों से विश्वास नहीं डिगा है जबकि मीडिया और अन्य संस्थान अपना विश्वास बरकरार नहीं रख पाये हैं लेकिन कुछ उम्मीद अभी न्यायिक तंत्र में बाकी है।
देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार द हिंदू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 4 करोड़ 70 लाख मुकदमे भारत के विभिन्न न्यायालयों में विचाराधीन हैं और उनमें से लगभग 1 लाख 87 हजार मुकदमे पिछले 30 सालों से फैसले के इंतजार में हैं और इन 4 करोड़ 70 लाख विचाराधीन मुकदमों के निपटारे के लिए मात्र 25,628 न्यायाधीष मौजूद हैं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अभी हाल में प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायधीश की संयुक्त कांफ्रेंस में न्यायालयों में लंबित प्रकरणों और जजेस की कमी पर गहरी चिंता जताते हुए अतरिक्त जजेस की नियुक्ति की बात की है उनके अनुसार जनसंख्या के अनुपात में यदि ऐसा नहीं किया गया तो स्तिथि को नहीं संभाल सकते और इस लंबित बोझ को कम नहीं किया जा सकता।
शायद यह बात उत्तर प्रदेश की डबल इंजन वाली सरकार ने गंभीरता से समझते हुए इसका त्वरित समाधान ही बुलडोजर के रूप में सोच लिया है और यह बुलडोजर उत्तर प्रदेश से निकलकर अन्य भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में भी समाधान स्वरूप पहुंच गया है और तथाकथित न्याय के अतरिक्त राजनैतिक एजेंडे के रूप में भी स्थापित हो रहा है , जिस प्रकार से न्याय की गर्जना बुलडोजर की आवाज बताई जा रही है या प्रचारित की जा रही है उसने कहीं न कहीं अदालत के न्यायमूर्ति के हाथों में मौजूद लकड़ी के हथौड़े को सीधा चैलेंज कर दिया है।
हालांकि मौन और निकम्मे विपक्ष की आवाज तो पहले से ही कमजोर थी लेकिन अब गरजते बुलडोजर ने उसे बंद ही कर दिया है और अगर कोई आवाज सुनी जा रही है तो वह सत्ता की चाबुक की आवाज है, त्वरित न्याय की इस प्रणाली ने पूरी संवैधानिक व्यवस्था को एक कटघरे में खड़ा कर दिया है या यूं कहा जाए संविधान रूपी इमारत पर ही बुलडोजर चला दिया है।
बाबा साहब ने भारत के नागरिकों के हितों की सुरक्षा के उद्देश्य से जिस संवैधानिक इमारत का निर्माण किया आज वह खतरे में है ,आरोपियों को अपराधी बताकर जिस प्रकार की कार्यवाही की जा रही है और उसपर इस संविधान के रक्षक देश की बड़ी अदालत में बैठे मुख्य न्यायाधीश के मौन ने आम जनमानस को और विचलित किया है, इधर उधर की घटनाओं पर स्वतः संज्ञान लेने वाली सर्वोच्च अदालत जिस तरह खामोश है यह हैरान करने वाली बात है।
देश का दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक वर्ग जिस प्रकार कई स्थानों पर पुलिसिया दमन का शिकार है और ऊपर से उसपर जैसे बुलडोजर गरजा है उससे लोगों में संदेश गया है कि न्याय शायद अब किताबों में कैद है लेकिन साथ में मुस्लिम समाज की मजहबी और सियासी कयादत ने भी सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा अभी तक न्याय के नए स्वरूप बुलडोजर के विरुद्ध नहीं खटखटाया इसने उनकी भी कलई खोल कर रख दी है।
अभी जो मौजूदा स्तिथि है लोगों में डर बढ़ गया है लेकिन डर की एक निश्चित सीमा है इसे समय रहते समझ लिया जाना चाहिए जहां समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है वहीं सरकारी दमन भी जुल्म की श्रेणी में आता है लोगों को संयमित रहना चाहिए साथ ही सरकार को भी सचेत हो जाना चाहिए ।क्योंकि एक मशहूर पेय का विज्ञापन है ,”डर के आगे जीत है “नदी का बांध जब टूटता है तो सैलाब आ जाता है लिहाजा भारत के संविधान की रक्षा की जानी चाहिए,भारत की न्यायिक प्रक्रिया और न्याय तंत्र पर लोगों का भरोसा मजबूत हो इसका प्रयास किया जाना चाहिए,ताकि भारत भू और महके लोगों की प्रेम में डुबोने वाला देश अराजकता और नफरत के आग में न झुलसे यह हम सब की साझा जिम्मेदारी है।