तलाक़…… तलाक़…… तलाक़ !!!!!

आज देश में सबसे गर्म बहस तीन तलाक़ कानून को लेकर छिड़ी हुई है ,जहां एक ओर सरकार इसे मुस्लिम औरतों के सम्मान की जंग बता रही है वहीं विपक्ष जोकि लगभग नहीं है ,इसे मुसलमानों के खिलाफ और शरीयत में दखलंदाजी बता रहे हैं।
हालांकि यह दोनों लगभग एक ही बात कह रहे हैं आप हैरान मत हों ज़रा गौर कीजिए और सोचिए दोनों यही बता रहे हैं कि मुसलमानों पर सख्ती की जायेगी जिससे कुछ लोग खुश हो रहे हैं जिन्हें यह खबर नहीं की यह छलावे के सिवा कुछ नहीं है और बस वैसा ही एक कानून है जैसे बाकी बहुत सारे कानून।
इसमें मुसलमानों को बहुत डरने की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है अगर वह खुद थोड़ा समझदारी दिखाएं तो। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसी संस्थाएं अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए इसे सीधे शरीयत से जोड़ देंगी और भोले भाले लोग इस्लाम खतरे में है का नारा लगाकर विरोध में उतर जाएंगे, जिससे फायदा सिर्फ सत्तापक्ष को मिलेगा और हम सब सिर्फ चिल्लाने वालों की भूमिका में होंगे।

क़ुरान ने एक सीधा तरीका तलाक़ का बता दिया और इसे पूरी तरह खोल कर बताया तो तलाक़ का तरीका तो वहीं होगा और उसे न तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शून्य करार दिया है और न ही इस कानून में उसकी कोई बात यह सिर्फ एक समय में तीन तलाक़ दिए जाने के विरूद्ध है।
अब बड़ा सवाल यह है कि मुसलमान जिसे तलाक़े बिद्दत मानते हैं यानी ऐसी बुरी प्रथा जो पैगम्बर के समय दीन में शामिल नहीं थी उसके लिए इतने चिंतित क्यों हैं एक तरफ तो इस्लाम के जानकार इसे हराम करार देते हैं दूसरी तरफ सरकार के कानून बनाने की बात करने पर इस शरीयत में दखलंदाजी कहते हैं आखिर यह क्या मामला है ?
दरअसल एक ही समय में तीन तलाक़ को मान्यता इस्लाम के दूसरे खलीफा हज़रत उमर इब्ने खतताब के समय में दी गई और यह विशेष परिस्थितियों में किया गया जब समाज में कुछ लोगों ने इस्लाम के खूबसूरत निज़ाम का गलत फायदा उठाकर महिलाओं को धोखा देना शुरू किया तो हज़रत उमर ने विशेष मामलों में इसे लागू किया
यानी साफ तौर पर यह विशेष परिस्थितियों पर नियंत्रण करने के लिए समाज को बुराई से रोकने के लिए किया गया विशेष प्रावधान था ,जिसे आजके समय में अध्याधेक्ष माना जाएगा ,जिसका एक सीमित समय था जब वह विशेष परिस्थिति समाप्त होगी तो यह प्रभावी नहीं रहेगा उस समय पर इस कृत को अंजाम देने वालों के लिए कोड़े मारे जाने की सज़ा का प्रावधान भी था ।
समय बीतने के बाद इस अध्याधेक्ष को इस्लामी कानून माना जाने लगा और सज़ा को इससे अलग कर दिया गया अब यह एक सामाजिक बुराई के तौर पर समाज में व्याप्त हो गया जिससे इस्लाम विरोधियों को एक बड़ा हथियार मिला लेकिन धर्मगुरुओं ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
धीरे धीरे यह एक सामाजिक बुराई से बढ़कर धार्मिक मामले में परिवर्तित हो गया और इसका शिकार होने लगीं समाज की कुछ महिलाएं हालंकि इस्लाम धर्म को मानने वालों में तलाक़ के बहुत कम मामले आते हैं लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने कहीं कहीं शरारत के तौर पर इसका इस्तेमाल किया और कई मामलों में गरीबी और अशिक्षा के चलते इसका गलत उपयोग होता है।
मौजूदा सरकार ने इसे एक राजनैतिक मुद्दा बना दिया हालांकि यह मुसलमानों के सामाजिक सुधार का मामला था और इसे अंतरविमर्श के माध्यम से हल किया जाना चाहिए लेकिन धर्म के जानकारों की सुस्ती ने इसे राष्ट्रीय विमर्श का मामला बना दिया ,इसके लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार वह लोग हैं जो आपस में दाढ़ी की लंबाई, पैजामे के छोटे बड़े होने पर बहस तो करते रहे लेकिन समाज में फैलती इस बुराई के ऊपर कभी सर जोड़ कर नहीं बैठे।
अब जब मामला कानून बनने तक आ पहुंचा है तब इसे सीधे शरीयत में दखल बता कर शोर मचा रहे हैं, हालांकि यह मामला नया नहीं है यह बिल जब पहली बार लोकसभा में आया तब से अब तक इन मुस्लिम रहनुमाओं के द्वारा क्या प्रयास किया गया यह सब जानते हैं सिवा शरीयत बचाओ सम्मेलनों के।
यहां एक बात और बताता चलू कि भारतीय मुसलमानों के एक बड़े संगठन आल इंडिया उलमा व मशाइख़ बोर्ड ने मुसलमानों के सभी फिरकों से इस संबंध में सुझाव आमंत्रित किए और सबको अन्य देशों में जहां तीन तलाक़ को बैन किया गया है उनके कानून की प्रतिलिपि भेजकर सुझाव मांगे और कहा कि हम सब मिलकर इसपर एक नतीजा निकालें ,लेकिन अफसोस जानकारी के अनुसार इस पर कोई भी आगे नहीं आया ।
खैर हम बात कर रहे हैं मौजूदा कानून की इस बिल में लिखा है कि यदि किसी महिला का पति एक साथ उसे तीन तलाक़ देता है तो वह महिला स्वयं या उसका कोई रक्तसंबंधी यानी जिससे उसका खूनी रिश्ता हो शिकायत कर सकता है।
शिकायत के बाद मजिस्ट्रेट अगर संतुष्ट होता है तो आरोपी को ज़मानत दे सकता है ।आरोप साबित होने पर महिला के पति को कारावास जिसकी अवधि अधिकतम तीन साल तक होगी या 500 रुपए का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जायेगा।
इस कानून का जो सबसे कमजोर पक्ष है वह यह है कि सबूत पेश करने का भार औरत पर है वहीं इसकी दूसरी दुविधा यह है कि सज़ा होने पर महिला को उसके पति द्वारा गुज़ारा भत्ता दिया जाएगा ।
अब इसमें सवाल है कि आखिर पति गुज़ारा भत्ता कहां से देगा क्योंकि वह स्वयं जेल में होगा ?
यहां एक बात और सोचनीय है वह यह कि जब एक साथ तीन तलाक़ को सर्वोत्तम न्यायालय ने शून्य घोषित कर दिया है तो अपराध जब होगा ही नहीं तो सजा किस बात की होगी।
यानी यह सीधे तौर पर नारी के विरूद्ध कानून हो गया क्योंकि एक तरफ उसकी तलाक़ नहीं होगी उसे अपने उस पति के साथ रहना है जिसे उसने तीन साल के लिए जेल भेजा है ,अब दोनों किस आधार पर अपने जीवन को आगे बढ़ा पाएंगे क्योंकि दोनों में एक नफरत की भावना रहेगी और पति के घरवाले भी इस महिला को स्वीकार नहीं करेंगे ऐसे में समाज में हिंसा बढ़ेगी ।
तलाक़ से अधिक हत्या के मामलों में वृद्धि होने की प्रबल संभावना होगी जोकि खतरनाक है और महिलाओं के प्रति हिंसा को बढ़ावा देने वाला है ।
यह कानून तब प्रभावी हो सकता है कि तीन तलाक़ को मान्य करार दिया जाय यानी महिला की तलाक़ हो जाए और फिर सजा का प्रावधान हो अन्यथा यह सिर्फ महिलाओं के प्रति हिंसा को बढ़ाने वाला कानून बन कर रह जाएगा।
वहीं मुस्लिम संगठनों को इस कानून का विरोध इस आधार पर न कर की यह शरीयत के विरूद्ध है बल्कि महिलाओं के विरूद्ध है और संविधान के विरूद्ध है करके करना चाहिए यही सत्यता है।
अगर इस आधार पर जनमानस के बीच इस बिल को लेकर जाया जाएगा तो न सिर्फ मुस्लिम महिलाएं अपितु अन्य धर्मों के मानने वाले महिला एवं पुरुष भी सच से रूबरू हो सकेंगे ।और जिस उद्देश्य से इस बिल को लाया गया है वह विफल होगा क्योंकि इसमें कहीं भी मुस्लिम महिलाओं का हित नहीं है बल्कि उन्हें नरक में धकेलने का मसौदा भर है।
वहीं धर्मगुरुओं को इस तीन तलाक़ और समाज में बहुत कम लेकिन फिर भी प्रचलित हलाला जैसी कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए जागरूकता लानी होगी
उन्हें लोगों को बताना होगा कि यह इस्लामिक कानून नहीं है बल्कि विशेष समय में किया गया प्रावाधन मात्र था अब यह मान्य नहीं है और हलाला जैसा प्रावधान भी नहीं है बल्कि सच यह है कि महिला तलाक़ के बाद पूरी तरह आज़ाद है अब वह कहीं भी निकाह करने के लिए स्वतंत्र है सिवा अपने पहले पति से इस प्रकार उसकी स्वतंत्र सहमति से किए गए निकाह के उपरांत यदि उस व्यक्ति के द्वारा भी उसे तलाक़ दिया जाता है तो अब वह स्वतंत्र रूप से चाहे तो अपने पहले पति से निकाह कर सकती है लेकिन यदि जिस व्यक्ति से उसने तलाक़ के बाद निकाह किया उससे यह शर्त है कि वह उसे तलाक़ देगा ताकि उसका वापिस निकाह अपने पहले पति से हो सके सरासर हराम है ।और धर्म को बदनाम करने वाला कृत्य है जिसका इस्लाम में कोई स्थान नहीं है।
धर्मगुरुओं को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी जब मुसलमानों को शरीयत में दखल बर्दाश्त नहीं तो फिर यह प्रथाएं कहां से अाई जिनका इस्लाम से तो कोई लेना देना नहीं इसका जवाब भी मिलना चाहिए।

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