मानव अधिकारों पर अब लंबी बहस है और कहां इसे उल्लंघन माना जायेगा और कहां इसे न्याय की श्रेणी में ला दिया जाएगा यह उल्लंघन करने वाले की ताक़त पर निर्भर करता है ,कहीं बेकसूरों का खून अस्पतालों पर बम गिरा कर स्कूलों को मिसाइल का निशाना बना कर किया जायेगा किसी आतंकवाद के विनाश के नाम पर और कहां सिर्फ किसी मामले को मानवाधिकारों से जोड़ा जाएगा यह तय नहीं है,लेकिन जहां से यह पूरी परिकल्पना ली गई है वहां ऐसा हरगिज नहीं है वहां इसको पूरी तरह उल्लेखित किया गया है,आप सोच रहे होंगे कि मैं यूरोप की बात करूंगा जी नहीं वहां तो यह सोच 17वी शताब्दी में आई और 17वी शताब्दी में सिर्फ यह बात ही तक सीमित था और 18वी शताब्दी के अंत आते आते अमेरिका और फ्रांस के संविधानों में इसका ऐलान हो सका लेकिन यह मानवाधिकारों का ऐलान इस्लाम ने पहले ही कर दिया और आखरी नबी ने जब मदीना स्टेट कायम किया तो इसे पूरी तरह से लागू किया गया ।खुद को आधुनिक कहने वालों ने यह विचार भी इस्लाम से ही लिया ।यह दावा कि यह विचार अंग्रेज़ों द्वारा बनाये मैगनाकारटा के जरिए हुआ जबकि यह इस्लाम द्वारा इसकी पूर्ण व्यवस्था करने के 600 साल बाद की बात है ।
जहालत के दौर में जब इस्लाम की रोशनी बिखरी तो मानवअधिकार यानी इन्सान की हैसियत से इन्सान के अधिकार को लोगो ने न सिर्फ जाना बल्कि इसे पाकर अपनी दुनिया बदली उनमें पहला अधिकार ज़िंदा रहने का अधिकार सभी को है यानी इन्सानी जान के आदर का कतव्र्य हैं। कुरआन में फरमाया गया हैं कि ‘‘ जिस आदमी ने किसी एक इन्सान को कत्ल किया, बगैर इसके कि उससे किसी जान का बदला लेना हो, या वह जमीन मे फसाद फलाने का मुजरिम हो, उसने मानों तमाम इन्सानों को कत्ल कर दिया’’ (5:32) अब इस बात का फैसला अदालत को करना है ,और अगर किसी कौम से जंग हो तो एक बाकायदा हुकूमत ही इसका फैसला कर सकती है। बहरहाल किसी आदमी को व्यक्तिगत रूप से यह अधिकार नही हैं कि खून का बदला ले या जमीन मे फसाद फैलाने की सजा दें। इसलिए हर इन्सान पर यह वाजिब हैं कि वह हरगिज किसी इन्सान का कत्ल न करे। इसी बात को दूसरी जगह पर कुरआन में इस तरह दुहराया गया हैं-
‘‘किसी जान को हक के बगैर कत्ल न करो, जिसे अल्लाह ने हराम किया हैं।’’ (6:152) और अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने किसी जान के कत्ल को शिर्क के बाद सब से बड़ा गुनाह करार दिया है।’’ सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शिर्क और किसी ‘नफ़्स’ को कत्ल करना हैं।’’इस्लाम ने यह बात इस्लाम के अनुयायियों के लिए नहीं बल्कि कुल मानवजाति के लिए कही।
जान की हिफाजत का हक़ कुरआन में जहां बेगुनाह के क़त्ल को इन्सानियत का कत्ल कहा गया वहीं उसके फौरन बाद यह फरमाया गया हैं कि ‘‘ और जिसने किसी नफ़स को बचाया उसने मानों तमाम इन्सानों को जिन्दगी बख्शी ।’’(5:32) यानी साफ तौर से कुरआन ने लोगों की ज़िन्दगी बचाने का हुक्म दिया चाहे वह किसी नसल का रंग का जाती का और धर्म का हो।
इस्लाम ने औरतों की इज्जत का हुक्म दिया औरत की अस्मत और इज्ज्त हर हाल मे महफूज़ रखनी हैं, चाहे औरत अपनी कौम की हो, या दुश्मन कौम की, जंगल बियाबान मे मिले या फतह किये हुये शहर में, हमारी अपने मजहब की हो या दूसरे मजहब से उसका ताल्लुक हो, या उसका कोई भी मजहब हो, मुसलमान किसी हाल में भी उस पर हाथ नही डाल सकता। उसके लिये जिना को हर हाल में हराम किया गया हैं चाहे यह कुकर्म किसी भी औरत से किया जाये। कुरआन के शब्द हैं-’’ जिना के करीब भी न फटको। (17:32) और उसके साथ ही यह भी किया गया हैं कि इस काम की सजा मुकर्रर कर दी गई। यह हुक्म किसी शर्त के साथ बन्धा हुआ नही हैं। औरत की अस्मत और इज्जत पर हाथ डालना हर हालत में मना हैं और अगर कोई मुसलमान इस काम को करता हैं तो वह इस की सजा से नही बच सकता, चाहे दुनिया मे सजा पाये या आखिरत में।
इस्लाम ने परहेशानहाल लोगों और गरीबों को हक़ दिया मांगने वाले और तंगदस्त का यह हक हैं कि उसकी मदद की जाये कुरआन मे यह हुक्म दिया गया हैं कि ‘‘ और मुसलमानों के मालों में मदद मांगने वाले और महरूम रह जाने वाले का हक हैं। ‘‘(05:19) यह हक इस्लाम ने स्थापित किया।
इंसानों को गुलामी से आजादी का परवाना इस्लाम ने दिया अल्लाह के रसूल ने साफ ने कहा” तीन किस्म के लोग है जिन के खिलाफ कियामत के दिन मै खुद इस्तिगासा दायर करूंगा। उनमें से एक वह आदमी हैं, जो किसी आजाद इन्सान को पकड़ कर बेचे और उसकी कीमत खाये। यहां भी किसी भी इंसान के बारे में निर्देश है न कि मुसलमानों के लिए यानी इस्लाम ने हर इन्सान को उसकी वैक्तिक आजादी का हक़ दे दिया अरब में जो लोग गुलाम थे, उनके मामले को इस्लाम ने इस तरह हल किया कि हर मुमकिन तरीको से उनको आजाद करने की प्रेरणा दी । लोगो को हुक्म दिया गया कि अपने कुछ गुनाहों के प्रायश्चित के तौर पर उनको आजाद करें। अपनी खुशी से खुद किसी गुलाम को आजाद करना एक बड़ी नेकी का काम करार दिया गया। यहां तक कहा गया कि आजाद करने वाले का हर अंग उस गुलाम के हर अंग के बदले में दोजख से बच जायेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि ‘‘ खिलाफते राशिदा’’ के दौर तक पहुंचते-पहुंचते अरब के तमाम पुराने गुलाम आजाद हो गये।जबकि खुद को आधुनिक कहने वाले लोगों को गुलाम बनाए हुए थे और हम भारत के लोगों ने भी अंग्रेज़ों की यातनापूर्ण दासता को भोगा है यह बहुत पुरानी बात नहीं है।
इस्लाम ने हर व्यक्ति को समान न्याय प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया यह एक बहुत ज़रूरी अधिकार हैं, जो इस्लाम ने इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से दिया हैं। कुरआन में आया हैं कि ‘‘ किसी गिरोह, की दुश्मनी तुम्हे इतना न भड़का दे……………..कि तुम नामुनासिब ज्यादती करने लगो।’’ (5:8) आगे चल कर इसी सिलसिले मे फिर फरमाया, ‘‘और किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना उत्तेजित न कर दें कि तुम इन्साफ से हट जाओ, इन्साफ करो, यही धर्म परायणता से करीबतर हैं।’’ (5:8) एक और जगह फरमाया गया हैं कि ‘‘ ऐ लोगो! जो इमान लाये हो, इन्साफ करने वाले और खुदा के वास्ते गवाह बनो।’’(5:8) यानी इस्लाम ने स्पष्ट रूप से सभी को न्याय प्राप्त करने का अधिकार दिया यह एक क्रांति थी जो इस्लाम से पहले कहीं नहीं थी
इस्लाम न सिर्फ यह कि किसी रंग व नस्ल के भेद-भाव के बगैर तमाम इन्सानों के बीच बराबरी को मानता हैं, बल्कि उसे एक महत्वपूर्ण सत्य नियम करार देता हैं। कुरआन में अल्लाह ने फरमाया हैं कि ‘‘ ऐ इन्सानों! हम ने तुम को एक मां और एक बाप से पैदा किया।’’ ‘‘ और हमने तुम को कौमों और कबीलों में बांट दिया, ताकि तुम एक दूसरे को पहचानों। ‘‘(49:13) यानी कौमों और कबीलो में यह तक्सीम पहचान के लिए हैं। इसलिए हैं कि एक कबीलों या एक कौम के लोग आपस मे एक दूसरे से परिचित हो और आपस मे सहयोग कर सके। यह इसलिए नही हैं कि एक कौम दूसरी कौम पर बड़ाई जताये और उसके साथ घमण्ड से पेश आये, उसको कमजोर और नीचा समझे और उसके अधिकारों पर डाके मारे। ‘‘ हकीकत में तुममें इज्ज्त वाला वह हैं, जो तुम में सब से ज्यादा खुदा से डरने वाला है।’’(49:13) यानी इन्सान पर इन्सान की बड़ाई सिर्फ पाक़ीजा किरदार और अच्छे आचरण की बिना पर हैं, न कि रंग व नस्ल जुबान या वतन की बिना पर। इसी बात को अल्लाह के रसूल ने अपने आखरी खुतबे में बयान फरमाया हैं कि-
‘‘ किसी अरबी को गै़र-अरबी पर कोई बड़ाई नही हैं, न गै़र-अरबी पर कोई बड़ाई हैं। न गोरे को काले पर और न काले को गोरे पर । तुम सब आदम ‘‘(अलैहि0) की औलाद हो और आदम मिट्टी से पैदा हुए थे।’’ इस तरह इस्लाम ने तमाम मानव-जाति में बराबरी कायम की और रंग, नस्ल, भाषा और राष्ट्र की बिना पर सारे भेद-भावों की जड़ काट दी। जबकि अमेरिका जैसे तरक्की पसंद मुल्क में आज भी काले गोरे का भेद है जबकि इस्लाम ने इसे लगभग 1500 साल पहले ही खतम कर दिया और मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले और झंडाबरदार अभी तक अपने यहां इन्सानी बराबरी का तसव्वुर मूर्त रूप से धरातल पर स्थापित नहीं कर सके
इस्लाम ने अच्छे कामों में सबके सहयोग की शिक्षा दी और बुराई से सबको रोकने का हुक्म दिया कुरआन में कहा गया ‘‘नेकी और परहेजगारी में सहयोग करो। बदी और गुनाह के मामले में सहयोग न करों।’’ (5:2)
इस्लाम ने युद्ध और संधि के नियम तय किए और लोगों को इस पर अमल करके दिखाया आज भी आधुनिक संसार इस्लाम के इन नियमों तक नहीं पहुंच सका हालांकि जो कुछ भी बदलाव किए इस्लाम की नकल ही की
इस्लाम में सबसे पहले दुश्मन मुल्क की जंग करने वाली आवाम (Combatant) और जंग न करने वाली(Non–Combatant) आबादी के बीच फर्क किया गया हैं। जहां तक जंग न करती हुई आबादी का संबंध है औरते, बच्चे, बूढ़े, बीमार, अंधे अपाहिज वगैरह उसके बारे में अल्लाह के रसूल ने फरमाया हैं।
जो लड़ने वाले नही हैं, उनको कत्ल न किया जाये
‘‘किसी बूढ़े, किसी बच्चे और किसी औरत को कत्ल न करों।’’
‘‘ खानकाह मे बैठे राहिबो को कत्ल न करो।’’ या इबादतगाहो मे बैठे हुए लोगो को न मारों।
इस्लाम ने युद्ध करने वालों को भी अधिकार दिए कहा गया कि युद्ध में किसी को ज़िंदा न जलाया जाए आग का अजाब न दिया जाये हदीस मे हूजूर (सल्ल0) का इरशाद हैं कि ‘‘ आग का अजाब देना आग के रब के सिवा किसी को जेबा नही देता।’’
युद्ध में घायल व्यक्ति को मारने से रोका गया‘‘किसी जख्मी पर हमला न करो।’’ यानी वह जख्मी जो लड़ने के काबिल न रहा हो, ,युद्ध बंदी को कत्ल न किया जाये साथ ही बांध कर कत्ल न किया जाये‘‘नबी (सल्ल0) ने बांध कर कत्ल करने या कैद की हालत में कत्ल करने से मना फरमाया।
जंग जीतने के बाद दुश्मन देश में कत्लेआम या लूटमार न की जाये यह हिदायत की गई कि दुश्मनों के मुल्क में दाखिल हो तो आम तबाही न फैलाओं। बस्तियों को वीरान न करो, सिवाये उन लोगो के जो तुम से लड़ते हैं और किसी आदमी के माल पर हाथ न डालो। हदीस में बयान किया गया हैं कि ‘‘नबी (सल्ल0) ने लूटमार से मना किया हैं। ‘‘और आप (सल्ल0) का फरमान था कि ‘‘लूट का माल मुरदार से ज्यादा हलाल नही हैं। ‘‘ यानी वह भी मुरदार की तरह हराम हैं। वहीं दुश्मन की लाशों के एहतराम का पाठ भी इस्लाम ने सिखाया ‘‘नबी (सल्ल0) ने दुश्मनों की लाशों, की काट, पीट या गत बिगाड़ने से मना फरमाया हैं।’’ और दुश्मन की लाशें उनके परिजनों को वापिस करने का हुक्म दिया गया अहजाब की जंग में दुश्मन का एक बड़ा मशहूर घुड़ सवार मर कर खन्दक में गिर गया। काफिरों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के सामने दस हजार दीनार पेश किये कि उसकी लाश हमे दे दीजिए। आप (सल्ल0) ने फरमाया कि मै मुर्दे बेचने वाला नही हूं। तुम ले जाओ अपनी लाश।
इस्लाम में वादाखिलाफी को भी सख्ती से मना कर दिया । अल्लाह के रसूल (सल्ल0) फौजो को भेजते वक्त जो हिदायतें देते थे, उनमें से एक यह थी कि ‘‘ वादाखिलाफी न करना। ‘‘ कुरआन और हदीस मे इस हुक्म को बार-बार दोहराया गया हैं कि दुश्मन अगर अपने वादे से फिरता है तो करे, लेकिन तुम को उसपर कायम रहना है।
इस्लाम ने जंग से पहले ऐलान करने का हुक्म दिया कुरआन मे फरमाया गया हैं कि, ‘‘अगर तुम्हे किसी कौम से ख्यानत ़(यानी संधि तोड़ने) का खतरा हो तो उसका अहद खुल्लमखुल्ला उसके मुंह पर मार दो।’’ ़(8:58) इस आयत में इस बात से मना कर दिया गया हैं कि जंग के ऐलान के बगैर दुश्मन के ‘खिलाफ जंग छेड़ दी जाये, सिवाय इसके कि दूसरे ने आक्रामक कार्यवाइयां शुरू कर दी हो।
इस्लाम ने लोगों की इज्जत की रक्षा के लिए साफ नियम दिए क़ुरआन में साफ हुक्म हैं कि ‘‘लोग एक दूसरे का मजाक न उड़ाये, एक दूसरे की हंसी न करें।’’ (49:11) ‘‘ और तुम आपस में एक दूसरे पर चोटें न करो (49:11) फब्तियां न कसो, इल्जाम न धरो, ताने न दो, खुल्लम खुल्ला या होठो के अन्दर या इशारों से उसको जलील न करो। ‘‘एक दूसरे के बुरे नाम न रखों।’’(49:11) ‘‘और तुम मे से कोई किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई न करें।़(49:12) यह इस्लाम में सभी को अधिकार है कि वह अपने आत्मसम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सके और कोई अमीर किसी गरीब को बेइज्जत नहीं कर सकता।
इस्लाम लोगों को उनकी व्यक्तिगत जीवन की सुरक्षा के संबंध में स्पष्ट निर्देश देता है कुरआन का हुक्म हैं कि ‘‘ एक दूसरे के हालात की टोह में न रहा करों।’’ (49:12) ‘‘ लोगों के घरों में उनकी इज़ाज़त के बगैर अन्दर न जाओं।’’ ़(24:27) अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने यहां तक ताकीद की कि आदमी खुद अपने घर में अचानक दाखिल न हो, बल्कि किसी न किसी तरह घर वालों को खबरदार कर दें कि वह अन्दर आ रहा हैं ताकि मां बहनों और जवान बेटियों पर ऐसी हालत मे नजर न पड़े, जिसमें न वह उसे पसन्द कर सकती हैं कि उन्हे देखा जाये। न खुद वह आदमी यह पसन्द करता हैं कि उन्हे देखे। दूसरों के घर में झांकने की कोशिश करना भी सख्त मना हैं। ‘‘ हूजूर (सल्ल0) ने दूसरे का खत तक उसकी इज़ाज़त के बगैर पढ़ने से मना फरमाया हैं। यहां तक कि कोई अपना खत पढ़ रहा हो और दूसरा आदमी झांक कर उसे पढ़ने लगे तो यह भी सख्त मना हैं। जबकि आधुनिक दुनिया में सबसे पहले हमला निजिता पर ही किया गया और अब किसी भी तरह आपकी नीजिता सुरक्षित नहीं है क्योंकि तकनीक के नाम पर इस अधिकार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है
इस्लाम के दिये हुए अधिकारों में से एक अधिकार जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार हैं। अल्लाह का इरशाद हैं कि ‘‘अल्लाह को बुराई के साथ आवाज बुलन्द करना पसन्द नही हैं,सिवाये उस आदमी के जिस पर जुल्म किया गया हो।’’ (4:148) यानी हर इन्सान को ज़ुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का पूरा हक़ है।
इस्लाम लोगों को भलाई के लिए अपनी राय रखने की पूरी स्वतंत्रता देता है बुराई को बढ़ावा देने के लिए नहीं ।
यानी इस्लाम में लोगों को हर तरह का अधिकार जोकि उन्हें एक अच्छा जीवन जीने के लिए आवश्यक है प्रदान किया ताकि एक सभ्य और मुहब्बत वाला समाज बने लेकिन इस्लाम के अनुयायियों ने भी न तो इन अधिकारों को सही से समझने का प्रयास किया और न ही इन्हें अपने जीवन में शामिल किया जिस कारण उनके खिलाफ एक प्रोपेगंडा खड़ा किया जा सका और उन्हें रूढ़िवादी कहा जाने लगा जबकि सत्यता यह है जब लोग इन्सान को इन्सान नहीं मान रहे थे तब इस्लाम गुलामों के हक़ बता रहा था ,बेटियों को रहमत,औरतों को एहतराम के लायक कहा जा रहा था और इसे अमल में लाया जा रहा था,अल्लाह के नबी ने जब मदीना स्टेट का निर्माण किया और उसका लिखित संविधान मिसाके मदीना यानी चार्टर ऑफ मदीना लागू किया जिसमे धार्मिक अल्पसंख्यकों को जिस प्रकार अधिकार दिए गए और जैसा न्याय का शासन कायम किया गया वह रहती दुनिया तक मिसाल है। मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता घोषणा से 1400 साल पहले ही उससे अधिक और वास्तविक रूप से अधिकारों को न सिर्फ घोषित अपितु उन्हें व्यव्हार में इस्लाम द्वारा लाया चुका था ।
यूनुस मोहानी
8299687452,9305829207
younusmohani@gmail.com

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here