मौजूदा परिवेश में जिस तरह की राजनीति हो रही है उससे सभी भलीभांति परिचित हैं,एक तरफ धार्मिक कट्टरपंथ के माध्यम से बेरोजगार युवाओं को हथियार में बदला जा रहा है, दूसरी तरफ जब कोई मूल समस्या की ओर जनता का ध्यान आकर्षण कराने का प्रयास करता है उसे देशद्रोही साबित कर दिया जाता है,यह तो एक आम बात है लेकिन ऐसे समय में सबसे ज़्यादा मुस्लिम समाज ऊहापोह की स्थिति में है।
आजादी के बाद से आज तक मुसलमान ईमानदार नेतृत्व की तलाश में हर चुनाव में धोखा खाता चला आ रहा है,शुरुवाती दौर में जबरन उसे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को अपना नेता मानना पड़ा या यूं कहा जाए कि एक सोची समझी रणनीति के आधार पर कांग्रेस ने बिना कोई विकल्प दिए उन्हें मुसलमानों का नेता घोषित कर दिया।
उसका परिणाम वहीं आया जैसा उस समय सत्ताशीर्ष चाहता था ,क्योंकि वह सही समय नहीं था इस संबंध में बात करने का, बंटवारे के बाद जो माहौल बना था उसमे मुसलमानों को सरकार का करीबी चाहिए था जो उनके हितों की सुरक्षा एवं उनके जान माल की सुरक्षा के संबंध में सरकार से मात्र आश्वासन ले सके ,और यह काम मौलाना ने बखूबी अंजाम दिया, रही बात मुस्लिम हितों की तो उस संबंध में भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री रहते हुए उनके द्वारा शिक्षा नीति बनाने में जिस तरह का काम किया गया वह सब कुछ कहने के लिए काफी है।

यह राजनैतिक बाज़ार में मुसलमानों को मिला पहला धोखा था ,इसी समय जमीयत उलेमा हिंद का काम भी शुरू हो गया अब आजादी के बाद यह जमीयत बदल चुकी थी और इसका नेतृत्व कांग्रेसी रंग में रंग कर सिर्फ कांग्रेस की हिमायत में लग गया जिसका फायदा भी मिला वह फायदा आम मुस्लिम आवाम को नहीं बल्कि जमीयत से जुड़े बड़े लोगों को मिला और जहां भी सरकारी तन्त्र में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात आती जमीयत के लोग वहां दिखते रहे जिनका मकसद सिर्फ सरकार की हिमायत करना रहता और एक समुदाय के नाम पर मिली कुर्सी का सरकार के हित में इस्तेमाल करना भर रहा।।
धीरे धीरे समय बीतता गया और धर्म का राजनैतिकरण और तेज़ी से होने लगा जमीयत तो सरकार से सटी हुई थी ही हर प्रदेश में मुसलमानों में अपना रूसूख रखने वाले धर्म के ठेकेदार सत्ता के नजदीक हुए और मलाई काटने लगे यह सिलसिला लोकसभा ,विधानसभा सीटों से आगे निकलकर प्रधानी के चुनाव तक पहुंच गया और इन धार्मिक छत्रपो के प्रभाव का इस्तेमाल राजनैतिक अस्त्र के रूप में शुरू हो गया, एक तरफ हिंदुं मठ थे जहां से मठाधीक्ष अपने मानने वालों को इशारे कर रहे थे तो दूसरी तरफ मुस्लिम धार्मिक ठेकेदार जो अपने मानने वालों को हांक रहे थे।

मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी बुराई उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं वह बुराई यह है कि अगर कुछ हासिल होता है तो उसे अपनी मेहनत बताता है और न मिलने पर अल्लाह की मर्ज़ी की दुहाई देता नजर आता है,वर्ष प्रतिवर्ष मिलते राजनैतिक छलावे पर भी उसकी यही प्रतिक्रिया रही जिसका फायदा लगातार यह धार्मिक ठेकेदार उठाते रहे ।इसी बीच प्रदेशों में क्षेत्रीय दल ताकतवर बनकर उभरने लगे और कांग्रेस कमजोर होना शुरू हुई बस अब धार्मिक नेताओं की पव बारह हो गई इनको अब अधिक सम्मान और अधिक इनके काम का मुआवजा मिलना शुरू हो गया जिससे केंद्र में बैठी सरकार में जमीयत की अहमियत और बढ़ गई कि अब क्षेत्रीय दलों की तरफ मुसलमान बढ़ चले हैं इन्हें कांग्रेस में रोके रखने के लिए इनकी ज़रूरत बढ़ गई।
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ऐसा मुस्लिम समाज के साथ सिर्फ धर्म के ठेकेदारों ने ही नहीं किया बल्कि यही काम तब से आजतक चली आ रही मुस्लिम लीडरशिप ने भी किया मुसलमानों के मुद्दों पर चुनकर आने वाले विधानसभा या संसद भवन में पहुंचकर दल विशेष के चाटुकार के सिवा कुछ नहीं बचे यह मुसलमानों को तीसरा धोका मिला लेकिन यह कौम अपने पुराने ढर्रे से बाहर नहीं आयी कुछ दिन किसी व्यक्ति विशेष की बुराई की और उसके द्वारा दिए गए किसी एक सोचे समझे बयान के बाद फिर उसके पीछे लामबंद हो गई इनकी इसी कमजोरी का फायदा न सिर्फ राजनैतिक दलों ने बल्कि इस मुस्लिम नेतृत्व ने खूब उठाया ।

देश में मुस्लिम समाज में फिर्का परस्ती की बीमारी ने घर कर लिया और एक लीडर की सभी संभावनाओं पर पूर्ण विराम सा लग गया क्योंकि कोई भी फिरका दूसरे को मुसलमान मानने को तैयार नहीं तो नेता कैसे मान सकते हैं,इसका खुला फायदा राजनैतिक दलों को हुआ और वह अलग अलग धड़ों को अपने साथ लामबंद करने में सफल हुए।यह सभी धार्मिक नेता चुनाव के समय तो ऐलान करते नजर आए लेकिन बाद में हर मुस्लिम मुद्दे पर चुप्पी साधे रहे यहां तक कि बड़े दंगों में मुसलमानों का जान माल का नुक़सान बड़े पैमाने पर हुआ लेकिन फिर भी एक भी आवाज़ कहीं से नहीं सुनाई दी,विधानसभा से लेकर संसद भवन तक सैकड़ों मुस्लिम नुमाइंदे मौजूद रहे लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा सके और अपने अपने दल का निर्देश मानते हुए ख़ामोश खड़े तमाशा देखते रहें ,इसमें चंद नाम छोड़कर बाकी सब एक जैसे ही दिखे,यहां तक अगर किसी ने बोलने की जुर्रत भी की तो पार्टी ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया और पार्टी द्वारा की गई इस कार्यवाही पर बाकी बंधुआ नेताओं ने खामोशी साधे रखी और वफादारी का मेडल गले में लटकाए रहे ,समाज को फिर राजनैतिक धोका ही मिला ।

कन्याकुमारी से कश्मीर तक मुस्लिम नेतृत्व के नाम पर यह खेल लगातार खेला गया कश्मीर में गुलाम नबी आज़ाद हो मुफ्ती मोहम्मद सईद हों या महबूबा मुफ्ती ,अब्दुल्लाह परिवार सभी ने कश्मीरियों को ठगा और खुद तो राजसी ठाठ का मज़ा लेते रहे आवाम ज़िन्दगी और मौत से जूझती रही,सिर्फ कश्मीर में नहीं बल्कि बंगाल बिहार उत्तरप्रदेश महाराष्ट्र आसाम सभी जगह मजहबी नेता जहां अमीर हुए वहीं आवाम पीसी जाती रही यह कड़वी नहीं बल्कि ज़हर भरी बात है जिसे आपको निगलना है।
जब जब सरकार खतरे में आती यह मजहबी रहनुमा उसकी ढाल बनते और बदले में कोई ओहदा पा लेते या तयशुदा रकम से काम चल जाता यह इल्ज़ाम नहीं है सच है जो इस समय नंगा हो गया है ,मुस्लिम कौम पर सुलगते हुए बयान देकर जो नेता बने वह दिन प्रतिदिन अमीर हुए और मुस्लिम समाज के हिस्से में आई सिर्फ बर्बादी जिसे सच्चर कमेटी ने उजागर किया कि आपके हिस्से के पैसे ओहदे सब आपके द्वारा स्थापित धार्मिक ठेकेदारों और नेताओं को दे दिए गए हैं आपको देने के लिए सरकार के पास कुछ भी शेष नहीं है।
मौजूदा समय में भी यही चल रहा है जिसका ताज़ा उदाहरण मौलाना महमूद मदनी की ताज़ा बयानबाज़ी है जिसका उद्देश्य बीजेपी को महाराष्ट्र चुनावों में फायदा पहुंचाना है,असदुद्दीन ओवैसी आज़म ख़ान ,गुलाम रसूल बलियावी,और न जाने ऐसे अनगिनत नाम हैं जो यह धंधा बखूबी कर रहे हैं ,यहां असदुद्दीन ओवैसी के बारे में मेरे द्वारा कहीं गई बात से आप असहमत हो सकते हैं लेकिन में आपको याद दिलाता चलूं यह वहीं ओवैसी हैं जो ट्रिपल तलाक़ बिल पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा हैदराबाद में आयोजित एक विरोध सभा में बोलते हुए कह रहे थे कि शादी को आसान कर दो सुन्नत तरीके से शादी करो फिजूल खर्ची मत करो और कुछ दिनों बाद अपनी बेटी की मगनी में करोड़ों रुपए खर्च करते हैं जिसकी बड़ी चर्चा होती है यानी यह जो कहते हैं खुद के लिए नहीं होता बल्कि गरीब आवाम के लिए होता है।

सिर्फ यही नहीं बदरुद्दीन अजमल हो या डॉक्टर अय्यूब अंसारी या फिर आमिर रशादी यह सब अपने सर्कस आपको दिखा चुके हैं अब सवाल है कि हम और आप क्या करें इसके लिए सर से सर जोड़कर बैठना होगा और ईमानदार नेतृत्व की तलाश करनी होगी ,राजनैतिक मामलों में धार्मिक नेताओं की बेतुकी बयानबाज़ी को रोकना होगा और साफ तौर से कहना होगा कि इनकी किसी भी राजनैतिक बात को समाज कि आवाज़ न माना जाए यह इनकी व्यक्तिगत राय है।
धर्मगुरु या जिनके बड़ी तादाद में अनुसरण करने वाले हैं वह या खुद चुनाव मैदान में आयें या फिर सियासत से दूर रहें और सिर्फ धर्म पर बात करें, मुस्लिम समाज अपने नेतृत्व पर विचार करे और ईमानदार लोगों को आगे लाए और उनपर कड़ी नजर रखे कि वह बेईमान न होने पाएं अगर ऐसा होता है तो उसे बेदखल करें और पहले से तय्यार दूसरे व्यक्ति को आगे करें।

देशहित में और समाज के बारे में सोचने वाले पढ़े लिखे समझदार लोगों की मदद कर उन्हें आगे बढ़ाया जाए।
खुद से नेता बन बैठे लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए ,यानी साफ तौर पर राजनैतिक बयानबाजियों पर संपूर्ण रोक लगाए बिना यह संभव नहीं है वरना फिर वही होगा कि हम नुक़सान उठाने के बाद इतना कहेंगे कि अल्लाह की मर्ज़ी यही है,और कुछ लोग राज्यसभा की सीट पाकर मुस्कुरा रहे होंगे,नल्ली में नरसंहार देखकर सऊदी अरब गए मौलाना बता आएंगे कि सब कुछ ठीक है,नसबंदी हराम है का फतवा रातो रात वापिस होगा ,ट्रिपल तलाक़ पर फर्जी हंगामा होगा कहीं से वक्फ ज़मीनों पर हक मांगा जायेगा फिर खामोशी होगी ,जी हां कश्मीर से कन्याकुमारी तक धार्मिक ठेकेदारी से आपको राजनैतिक बाज़ार में मिलेगा सिर्फ धोखा।

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