सियासत हर रोज़ बदलती है लेकिन कई बार कुछ घटनाएँ या संयोग़ ऐसे हो जाते हैं कि लंबे समय से चले आ रहे समीकरण मात्र कुछ पलों में बदल जाते हैं और समाज नई दिशा में चल पड़ता है । हालाँकि इस प्रकार की घटनाएँ रोज़ रोज़ नहीं होती लेकिन इनका परिणाम दशकों तक देखने को मिलता है ,जैसे आपातकाल की ही मिसाल ले ली जाये तो उसने भारत का राजनैतिक परिदृश्य काफ़ी हद तक बदला उसके बाद मण्डल कमंडल की राजनीत ने पूरे समाज को एक नई राजनैतिक परिभाषा सिखा दी यद्यपि की आपातकाल से लेकर मण्डल कमंडल तक जो कुछ भी घटा उसमें पर्दे के पीछे खड़े संघ का साया सबको नज़र आया ।
जहां मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों पर हुई राजनीत ने कई क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया जिन्होने कांग्रेस को दीमक की तरह चाटा और धीरे धीरे उसे एक एक राज्य से बाहर करते चले गये, जब क्षेत्रीय दल मज़बूत हो रहे थे उसी समय संघ अपना खेल खेल रहा था और बाबरी आंदोलन को हवा दी जा रही थी जिसमें उसकी मदद के बदले में मदद ,क़ीमत के रूप में वसूली गई यह बात किसी से छुपी नहीं हैं ।
इधर क्षेत्रीय दल सत्ता के नशे में हुए उधर संघ ने अपना खेल पूरा कर दिया और धार्मिक उन्माद ने मण्डल को नीचे कर दिया, परिणाम स्वरूप केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने झंडा गाड़ दिया और फिर लगातार बँटवारे की राजनीत को हवा देते रहने और अथक परिश्रम के बल पर हर जगह कांग्रेस सहित क्षेत्रीय दलों को पछाड़ दिया, अभी भारत बीजेपी के उसी संक्रमण काल में है जहां विपक्ष से उसकी पहचान तक छीन लेने में संघ और बीजेपी कामयाब रहे हैं ।
कांग्रेस अपने मूल विचार पर चाह कर भी वापिस नहीं आ पा रही है और संघ की ही बनाई हुई सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीत कर रही है ,हर प्रदेश में मुसलमान से साफ़ शब्दों में कहा जा रहा है आप हमें वोट दीजिए लेकिन हम आपको साथ में नहीं खड़ा कर सकते ,आप इसे वक़्त की नज़ाकत समझिए पहले आप बीजेपी को सत्ता से बाहर करने में हमारी मदद कीजिए उसके बाद हम माहौल को वापिस सही करेंगे और मुसलमान भी इसे समझ कर वोट कर रहा है ।
इसका ताज़ा उदाहरण हिमांचल प्रदेश है जहां लगातार मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा रहा है और वहाँ पर कांग्रेस की सरकार और उसके मंत्री ख़ुद मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़े हुए हैं ।ऐसा ही मामला तेलंगाना में बनी नई कांग्रेस सरकार में देखने को मिल रहा है जहां मुसलमानों के ख़िलाफ़ सरकारी तंत्र काम कर रहा है शायद इसकी एक वजह संघ के बैकग्राउंड वाले मुख्यमंत्री का होना हो सकता है ।
लेकिन मुसलमान इन सबके बावजूद राहुल गांधी में विश्वास जता रहा है और उसे उनकी ईमानदारी पर भरोसा भी है ,एक तरफ़ वह कांग्रेस पार्टी से संतुष्ट नहीं है लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ राहुल गांधी के साथ खड़ा है और इसके बिल्कुल उलट कांग्रेस के नेताओं का हाल है वह कांग्रेस के साथ तो हैं लेकिन राहुल के साथ नहीं और लगातार राहुल गांधी की बात के उलट कार्यकलाप करते दिखते हैं ।हद तो यहाँ तक है कि राहुल गांधी के ट्वीट तक को बाक़ी बड़े कांग्रेस नेता रीट्वीट नहीं करते और जब परिवारवाद के मामले में गांधी परिवार के हमले द्वारा कांग्रेस बीजेपी के परिवारवाद को गिना रही होती है तभी राजीव शुक्ला जैसे बड़े नेता जय शाह के क़सीदे पढ़ते देखे जाते हैं ।
ख़ैर यह तो राजनैतिक दलों का मामला है हम बात कर रहे हैं नये समीकरण बनने की जिससे पूरे भारत की राजनीत बदलती दिख सकती है और काफ़ी हद तक यह संभव है कि विपक्षी दलों में सुधार शुरू हो या फिर उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाये और यह शुरुवात ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन यानी उवैसी की पार्टी के बड़े नेता और औरंगाबाद लोकसभा के पूर्व सांसद इम्तियाज़ जलील द्वारा महाराष्ट्र में पैग़म्बर के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक शब्द कहने वाले रामगिरि की गिरफ़्तारी को लेकर तिरंगा संविधान यात्रा के आह्वान से हो गई ,क्योंकि यह ऐसी रैली रही कि जिसके एलान के मात्र दो दिन के भीतर लाखों लोग इसके लिये एक साथ निकल पड़े ,महाराष्ट्र के हर हिस्से से मुंबई की तरफ़ आने वाली सड़कें लगभग जाम हो गई और यह रैली बिना किसी हिंसा के समाप्त हुई ।
इस रैली की न सिर्फ़ मुसलमानों ने बल्कि मीडिया ने भी तारीफ़ की ,क्योंकि इतने लोगों का जमा होना और बिना किसी हंगामे के वापिस जाना आज के भारत में अपने आप में एक चमत्कार ही कहा जा सकता है ।
इस रैली की कामयाबी के बाद भारतीय मुसलमानो में एक बहस छिड़ गई और एक झटके में उवैसी के ऊपर से बी टीम होने का इल्ज़ाम हट गया क्योंकि बात पैग़म्बर की थी और उसपर दूसरी पार्टीयां और उनमें बैठे मुस्लिम नेता विधायक सांसद मंत्री सब चुप्पी सादे हुए थे ऐसे में इम्तियाज़ जलील की इस कोशिश ने भारतीय मुसलमानों में जहां नई ऊर्जा का संचार कर दिया वहीं उनमे अपने राजनैतिक व्यवहार को बदलने को लेकर एक विमर्श शुरू हो गया है ।
मुसलमानों ने पहली बार कहीं न कहीं एक सुर में उवैसी को क्लीनचिट देदी जिससे पूरे बिपक्ष को करारा झटका ज़रूर लगा लेकिन अभी नफ़े नुक़सान का आकलन सही से नहीं कर पाने के कारण खामोशी छाई हुई है, वहीं महमूद मदनी जैसे लोगों ने ऐसे समय में सामने आकर पूरे विपक्ष की तरफ़ से मोर्चा सम्भाला मगर उनके मुँह खोलते ही पूरे समाज ने उनके बयान पर जैसी प्रतिक्रिया दी उसने इस नये राजनैतिक समीकरण को और बल दे दिया और सीधे तौर पर मदनी को मुसलमानों का दुश्मन करार देने में भी लोग नहीं चूके ।
इस पूरी क़वायद से जहां एक तरफ़ मुसलमानों ने पहली बार आज़ाद भारत में किसी मुस्लिम नेता को अपना नेता मानने की तरफ़ क़दम बढ़ाया है वहीं पूरे विपक्ष की सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीत पर अपना कड़ा ग़ुस्सा जता दिया है ,यानी साफ़ शब्दों में कहा जा रहा है कि देश में यदि सेक्युलर विचार के साथ चलने का साहस किसी दल में नहीं है तो फिर इस छलावे के साथ अब मुस्लिम भी नहीं खड़ा होगा और वह जहां अपनी ताक़त दिखा सकता है वहाँ ज़रूर दिखाएगा और अपनी भागीदारी स्वयं सुनिश्चित करेगा ।
अब अगर ऐसा होता है और महाराष्ट्र चुनाव में महा विकास अघाड़ी गठबंधन में उवैसी को इंट्री नहीं मिलती तो कांग्रेस सहित शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस को बड़ा नुक़सान होगा और मुसलमान मीम के साथ जा सकता है अगर ऐसा होता है तो बीजेपी को बड़ा फ़ायदा होगा साथ ही मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर उवैसी की पार्टी भी जीत दर्ज कर सकती है ।यह हवा यही ख़त्म नहीं होगी बल्कि बिहार बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी और अधिक असरदार अन्दाज़ में बह सकती है , यदि ऐसा होता है तो कई क्षेत्रीय दल हाशिये पर आ जायेंगे और कांग्रेस के भी अरमानों पर पानी फिर जायेगा ।
कुल मिलाकर इस रैली ने जहां विपक्ष के लिए ख़तरे का अलार्म बजा दिया है वहीं मुसलमानों की राजनैतिक समझ को भी प्रभावित किया है क्योंकि अभी तक राजनैतिक दलों के द्वारा मुसलमानों के नेता बनाकर भेजे जाते रहे है न कि किसी वास्तविक नेता को यह मौक़ा दिया गया है जिसका परिणाम पार्टी के वफ़ादार समाज के मसायल पर चुप्पी साधे रहने को मजबूर रहे हैं ।यह चलन नया नहीं है संविधान सभा में जब कॉमन सिविल कोड का मामला आया तो मौलाना हसरत मोहानी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के संरक्षण के लिए सभा के अंदर कड़ा विरोध दर्ज कराया लेकिन मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इस मामले पर कांग्रेस के स्टैंड के साथ थे इसी तरह ज़मीदारी उन्मूलन पर हसरत के विचार के साथ नहीं खड़े हुए लेकिन इस कौम ने हसरत को अपना नेता नहीं माना बल्कि नेहरू को अपना नेता और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को अपना प्रतिनिधि माना यह पहली बार हुआ है कि कौम ने अपने लिए आवाज़ उठाने वाले को अपना नेता मानने की तरफ़ क़दम बढ़ाया है ।
हालाँकि यह भारतीय मुस्लिम समाज की राजनीत का ऐसा पड़ाव है जहां उसे बहुत सोच समझ कर निर्णय लेना है लेकिन यह एक सुनहरा मौक़ा भी है जब सॉफ्ट हिंदुत्व के छलावे को बेनक़ाब किया जाए और अपनी एकजुटता के माध्यम से वापिस सिक्यूलरिज़म की तरफ़ चलने के लिए विपक्ष को मजबूर किया जाये उसे यह स्पष्ट संदेश दिया जाये कि या तो वापिस सिक्यूलरिज़म की राह पकड़ते हुए हमारी हिस्सेदारी दो वरना हम अब अपनी राह चुन चुके हैं ।
इम्तियाज़ जलील की जुर्रत ने जो काम किया है उसने भारतीय मुसलमानों की छवि को भी सुधारा है इसलिए इस नयी राजनीत की शूरवात का सूरज निकलने का एलान हो गया है देखना यह है कि इसकी गर्मी से क्या क्या पिघलता है और क्या वाक़ई में मुहब्बत की दुकान खुलने का एलान होता है या मात्र प्रचार से छलावा देने का खेल ??