हर तरफ सियासी नारों की गूंज है,सरकारी महकमों से लेकर आम आदमी तक इस शोर में गुम है ,कहीं मंदिर मस्जिद का मसला है,कहीं मोब लिंचिंग कहीं तीन तलाक़ है तो कहीं 370 हर तरफ खुद को खौफजदा महसूस कर रहा है मुसलमान।
वह मुद्दे जो देश के नागरिकों को सबसे ज़्यादा चिंतित करते हैं जैसे बेरोजगारी ,गरीबी,बढ़ता भ्रष्टाचार इन नारों में कहीं दब गए हैं ,अब हर तरफ लोगों को नफरतों का नशा पिलाकर बस उलझाने का प्रयास चल रहा है,जहां देखिए वहीं किसी न किसी बात पर भीड़ निर्दोषों की हत्या कर रही है, मरने वाले सिर्फ मुसलमान हों ऐसा नहीं है इस भीडतंत्र की भेंट चढ़ने वाले दलित भी हैं ईसाई भी हैं और भीड़ की हिंसा का शिकार सिख भी बने हैं ।


क्या अभी भी वह एक दूसरे की टांग खीच रहे हैं या फिर मुस्लिम रहनुमा चाहे वह सियासी हो या मजहबी खुद को महफूज़ समझ कर आवाम को मरने के लिए छोड़ दे रहे है? अभी तक इस देश में जब भी अल्पसंख्यकों पर कोई बात अाई है तो किसी बहुसंख्यक समुदाय से आने वाले भाई ने उसकी आवाज़ बुलंद की और फिर देश के तमाम अमन पसंद लोग उसके साथ खड़े हुए हैं लेकिन अब यह सिलसिला कमजोर होने लगा है वजह यह नहीं कि हमारे हमवतन भाई अब हमसे नफरत करने लगे हैं बल्कि वजह साफ है कि जब मुसलमान खुद एक जगह नहीं है तो कोई कैसे आपकी मदद कर सकता है।
यह बात सही है कि मुसलमानों में जो फिरके हैं उनकी मान्यताएं एवम अकीदा अलग अलग है लेकिन उनमें इस तरह की दूरी का होना कि वह जहां पर एक हैं उस बुनियाद पर भी अपने कौमी मसाइल के हल के लिए एक साथ आने को तैयार नहीं है।जबकि यह वक़्त की जरूरत है अगर वक़्त पर हालात को भापने में गलती हुई तो नुकसान तय है मगर फिर भी अपनी ज़िद को आगे रखना कहीं अक्लमंदी का फैसला नहीं है ।
जिस समय दिल्ली में धारा 370 पर फैसला हो रहा था उसी वक़्त दिल्ली में एक और इतिहासिक आयोजन भी हो रहा था , याकीनन भारत के मुसलमानों के लिए यह तारीखी ही था

क्योंकि एक ऐसा ही आयोजन 17 मार्च, से 20 मार्च 2016 को दिल्ली में हुआ वर्ल्ड सूफी फोरम जिसमें देश विदेश की तमाम सूफी परंपराओं से आने वाले धर्मगुरों ने एक साथ शिरकत की और एकसुर में जहां आतंकवाद को अमानवीय एवम निंदनीय कहा वहीं समाज के हर वर्ग को संदेश दिया कि नफरत किसी से नहीं मोहब्बत सबके लिए ,हालांकि इस सम्मेलन को लेकर भी मुसलमानों में ही बात शुरू हुई और आरोप लगाए गए क्योंकि इसमें नरेंद्र मोदी को बहैसियत प्रधानमंत्री भारत के आमंत्रित किया गया था

,मुसलमानों के एक तबके को यह हज़म नहीं हुआ लेकिन बाद में इसके अच्छे नतीजे जब आना शुरू हुए तो लोगों की ज़बान पर ताले भी लगे।
उस वक़्त वर्ल्ड सूफी फोरम के चेयरमैन और आल इंडिया उलमा व मशाईख बोर्ड के अध्यक्ष सय्यद अशरफ किछौछवी ने वक़्त की नब्ज को जिस तरह पकड़ा और हालात से दोचार कौम का अपनी हिक्मत से इलाज किया उसने बताया कि उनके अंदर दूरदर्शिता है।
हालांकि उनके द्वारा देश एवम विदेश की तमाम दरगाहों को एक जगह इकट्ठा किया गया लेकिन उनका दर्द यह है कि सब साथ तो आए लेकिन वापिस जाकर खामोश बैठ गए वरना हालात और साजगार होते जो नहीं हो सके।
5 अगस्त को दिल्ली में फिर ऐसा ही ऐतिहासिक मौका आया जहां संसद में 370 की बहस हो रही थी वहीं दिल्ली के तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में जमीयत उलेमा ए हिन्द के द्वारा बुलाया गया अमन व एकता सम्मेलन चल रहा था ,जिसमें जहां जमीयत उलेमा ए हिन्द के लोग जमा थे वहीं तमाम धर्मों के धर्माचार्य भी मौजूद थे लेकिन इस वजह से यह सम्मेलन कतई ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता था।क्योंकि ऐसा तो अक्सर होता रहता है जहां विभिन्न धर्मों के अनुयाई एक जगह जमा होते हों।

यह सम्मेलन तब ऐतिहासिक होता है जब इसमें हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लगभग 80% लोगो की कयादत भी इसमें शामिल हो गई ,शायद आपको मेरी बात समझ नहीं आई मै बात कर रहा हूं सुन्नी सूफी समुदाय की ,जहां एक ओर जमीयत के लोगों से बड़ा अकीदे का मतभेद है लेकिन इस सम्मेलन में सूफी समुदाय की शिरकत ने मुसलमानों में उम्मीद का संचार किया।
दरअसल 4 दिसंबर 2016 को आल इंडिया उलमा व मशाइख़ बोर्ड ने लखनऊ में एक सूफी सम्मेलन किया उसके दूसरे दिन यानी 5 दिसंबर 2014 को मौलाना महमूद मदनी का एक बयान आया जिसमें कहा गया कि उन्हें आल इंडिया उलमा व मशाईख बोर्ड की इमामत भी क़ुबूल है और कयादत भी,क्योंकि बोर्ड का नारा रहा है कि हमें न वहाबियों की इमामत क़ुबूल है न कयादत जिसके जवाब में मौलाना महमूद मदनी का यह बयान आया ।जिसके जवाब में बोर्ड ने कहा कि इत्तेहाद सिर्फ ख्वाजा के अकीदे पर मुमकिन है यानी जो अकीदा ख्वाजा गरीब नवाज का है वहीं अकीदा जिसका हो उससे ही इत्तेहाद हो सकता है।
इसके बाद जमीयत ने अजमेर शरीफ का रुख किया और मौलाना महमूद मदनी ने अजमेर में एक प्रोग्राम भी आयोजित किया। इसके बाद वक़्त बीतता गया सत्ता परिवर्तन उत्तर प्रदेश में भी हो गया और कौम का दर्द रखने वाले हर शक्स की तरफ से आवाज़ अाई कि अगर हमने अपने मस्लकी मसाइल की बुनियाद पर कौमी और समाजी मसाइल पर इत्तेहाद नहीं किया तो फिर आने वाले वक़्त में हमें माफ नहीं किया जाएगा।

मोब्लिंचिग की बढ़ती घटनाएं और फिर मुसलमानों का एक खौफ की तरफ तेजी से बढ़ना तभी रोका जा सकता है जब कौम एकजुट हो और उसके लिए मजहबी रहनुमाओं को पहले एक जगह आना होगा,इस आवाज़ को आल इंडिया उलमा व मशायख़ बोर्ड के सदर अशरफ किछौछवी ने सुना और इस बार जैसे ही जमीयत ने सम्मेलन की दावत दी उन्होंने खुले दिल से क़ुबूल कर ली,उन्होंने साफ किया कि हमारे मस्लकी इख्तेलाफ अपनी जगह हैं हम इसपर कभी समझौते को तैयार नहीं लेकिन कौमी और समाजी मसाइल में हम एक जगह आ सकते हैं ।
हज़रत किछौछवी की यह दूरंदेशी सोच वक़्त की जरूरत भी है ,वह इस मंच पर अकेले मौजूद नहीं थे बल्कि उनके साथ अजमेर शरीफ दरगाह के गद्दीनशीं एवम बोर्ड के ज्वाइंट सक्रेटरी सय्यद सलमान चिश्ती,कर्नाटक प्रदेश के बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सय्यद तनवीर हाशमी,और तेलंगाना प्रदेश के अध्यक्ष सय्यद आले मुस्तफा पाशा भी थे इन लोगों की इस सम्मेलन में मौजूदगी भारतीय मुसलमानों के लिए बहुत बड़ी राहत की खबर है।

देश के इतिहास में यह दिन जहां कश्मीर मामले के लिए याद किया जाएगा वहीं इस इत्तेहाद के लिए भी ,क्योंकि अगर अभी भी सब अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलापते रहे तो हालात बद से बत्तर हो जाएंगे जहां से संभाल पाना भी मुश्किल होगा।

यहां पर इस बात का बड़ा महत्त्व है कि मसलकी झगड़े अपने जलसों में मदरसों में बैठ कर हल हो और समाजी और मिल्ली मसले एक जगह इकट्ठा होकर हल किए जाएं।क्योंकि हमें बिखराए रख कर ही हमारे मुखालिफ का फायदा मुमकिन है अब हमें सोचना है कि हम खुद फायदे में जाएं या अपने मुखालिफ को फायदे में रखे ?
यहीं एक सवाल और भी है कि हम इस सम्मेलन और इत्तेहाद की सराहना करे या फिर एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाएं ? फैसला हमें और आपको करना है कि हम इस हिम्मत को सलाम करें या इसपर उंगली उठाएं ? जबकि हालात कहते हैं कि उंगली उठाने वाले या तो वक़्त की नब्ज नहीं जानते या फिर खुद अपने दुश्मन हैं।

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