जी हां आप सही समझ रहे हैं मैं अल्लाह(ईश्वर) के घर की ही बात कर रहा हूं जिसके बारे में विश्वास है कि वह अनन्त और असीमित है ऐसा विश्वास सभी धर्म के मानने वालों का ,खास तौर से मुसलमान अल्लाह को लमहदूद मानने वाले हैं ऐसा न मानना कुफ्र है तो फिर एक सवाल यहीं से जन्म लेता है कि लामहदूद अल्लाह (असीमित ईश्वर)के हर गली मोहल्ले में सीमित घर कैसे संभव है ?
यह सवाल आपको पूरी तरह गुस्से से भर देगा मैं यह जानता हूं फिर भी यह हिम्मत कर रहा हूं कि लामहदूद(असीमित)अल्लाह का महदूद (सीमित) घर कैसे संभव है ? आखिर ऐसा क्या अल्लाह ने स्वयं बताया है? या फिर उसके पैगम्बर ने? जवाब मिलेगा नहीं हरगिज़ नहीं .अल्लाह ने हर मस्जिद को अल्लाह का घर नहीं कहा न ही उसके पैगम्बर ने ऐसा कहा हैं ,रसूल ने मस्जिद को अल्लाह का घर नहीं कहा बल्कि मुत्तकियों (अल्लाह से डरने वाले)का घर कहा,अब सवाल पैदा हुआ कि यह अल्लाह का घर कैसे बन गई ,तो जवाब में कहा गया क्योंकि जिस चीज का महत्त्व प्रदर्शित करना होता है उसे खुदा वादहू लशरीक से जोड़ दिया जाता है और इसके लिए क़ुरान में मौजूद ऊटनी का ज़िक्र जिसमें उसे नाकतुल्लाह यानी अल्लाह की ऊठनी कहा गया और बैतुल्लाह यानी काबा शरीफ को अल्लाह का घर बताया गया,अब सवाल आता है कि क्या इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार जब खुदा मकान से पाक है तो उसका घर कैसे हो सकता है तो जवाब आता है कि खुदा का घर का मतलब खुदा की रहमत की खास जगह अब यह खास जगह काबा है यानी यह बैतुल्लाह है खुदा का घर है।

जब अल्लाह और रसूल ने मस्जिद को अल्लाह का घर करार नहीं दिया तो फिर यह कैसे हुआ इसपर खास विचार की आवश्कता है,अब मस्जिद की परिभाषा क्या है? जब तक हम यह नहीं समझ पाते हम इस समस्या का सामाधान नहीं ढूंढ़ पाएंगे मस्जिद की परिभाषा समझने के लिए हमें पैग़म्बरे इस्लाम की मस्जिद को देखना होगा कि मस्जिद- ए- नबवी कैसी है?मस्जिद में क्या किया जा रहा है ,क्या वहां सिर्फ नमाज़ पढ़ी जा रही है या फिर कुछ और भी हो रहा है, तो जवाब मिलेगा कि मस्जिद – ए- नबवी में सिर्फ नमाज़ नहीं पढ़ी जा रही बल्कि एक यूनिवर्सिटी ,एक मदरसा,एक हॉस्पिटल,एक मीडिया सेंटर,एक सदन एक कॉन्फ्रेंस हाल एक खलीफा का कार्यालय सब कुछ है और इतना ही नहीं निकाह भी मस्जिद में हो रहे हैं तो अल्लाह के रसूल की मस्जिद जहां इस्लाम का पार्लियामेंट दिखाई देती है वहीं एक कम्युनिटी सेंटर भी,जहां से आवाम की जिस्मानी और रूहानी दोनों तरह की जरूरत पूरी होती है।

यही परंपरा रसूल के बाद हुए खलीफा के दौर में भी चली और शुरवाती तीनों खलीफा का ऑफिस मस्जिद- ए- नब्वी ही रहा लेकिन हज़रत अली ने क्योंकि फसाद को रोकने के लिए अपनी खिलाफत का सेंटर मदीने से कूफा स्थानांतरित कर दिया तो अब कूफे की जामा मस्जिद खलीफा का कार्यालय बन गई,इस्लामी तालीम में जहां सिर्फ अच्छे कर्म करने वाले और अल्लाह से डरने वाले को नेतृत्व प्रदान करने की बात है जो क़ुरान से साबित है तो खलीफा ऐसा व्यक्ति है जो अल्लाह की इबादत में भी मुसलमानों की पेशवाई का सबसे ज़्यादा हक रखने वाला है लिहाज़ा मस्जिद का इमाम ही इस्लामी सत्ता के केंद्र में रहा चाहे वह स्वयं खलीफा हो या फिर राज्य का गवर्नर या चीफ जस्टिस।
लेकिन जैसे ही खिलाफत मुलूकियत में परिवर्तित हुई इस पूरी व्यवस्था को पंगु कर दिया गया बादशाह के चाटुकार ही पदासीन हुए और सच्चे लोग बागी करार देकर या तो क़त्ल किए गए या फिर जेलो में डाल दिए गए यही समय था जब इस्लाम में मस्जिद को अल्लाह का घर बनाकर सिर्फ पवित्र स्थान के तौर पर जाना जाने लगा और बाकी सत्ता के अन्य कार्य बादशाह के महल से अंजाम दिए जाने लगे ,समय जैसे जैसे बीतता गया यह विचार बलशाली होता गया और मस्जिद सिर्फ नमाज़ पढ़ने की जगह के तौर पर जानी जाने लगी ।
दरअसल मस्जिद को अल्लाह का घर बना कर प्रचारित करने के पीछे जो बड़ी योजना थी वह कामयाब हुई और वह मात्र इबादत की जगह बन कर रह गई इस तरह पूरे राजनैतिक चक्र से मस्जिद को बाहर कर दिया गया जो कभी सत्ता का केंद्र होती थी वह सिर्फ एक इमारत बना दी गई जिसे अल्लाह का घर प्रचारित किया गया,आपको यह बात अजीब लग रही होगी लेकिन इन बातों पर आपको और हमें गौर करना चाहिए।
मस्जिद में क्योंकि एक सच्चा आदमी अल्लाह से डरने वाला और उसके रसूल से मोहब्बत करने वाला लोगों को सच बता देता और उनकी सच्ची रहनुमाई कर देता क्योंकि लोगों का विश्वास उस व्यक्ति पर होता अतः वह उसकी बातो को मानते जिससे भ्रष्ट सत्ता को खतरा होता लिहाज़ा पहले तो सच्चे लोगों को परेशान किया गया और भ्रष्ट और चाटुकार मस्जिद में इमाम बनाए गए ताकि लोगों का विश्वास डिगे और फिर धीरे धीरे उसे अल्लाह का घर घोषित कर सिर्फ नमाज़ पढ़ने के लिए बना दिया गया।

मौजूदा समय में हर गांव,कस्बे,शहर की प्रमुख जगहों पर एक बड़ी इमारत आपको मस्जिद के नाम पर मिल जाएगी जिसका उपयोग पूरे दिन के 24 घण्टे में से मुसलमान मात्र 100 मिनट मात्र ही करते हैं और यह मस्जिद नामक इमारत हर प्रकार की साज सज्जा एवं सभी प्रकार की सहूलियतों से पूर्ण होती है इसमें नरम गद्दे ,प्रकाश की समुचित व्यवस्था ,पानी का इंतजाम एयरकंडीशन हाल सब कुछ होता है और यह इमारत दिन भर खाली रहती है।
मुसलमान इसमें सिर्फ जुमे के दिन ही इतनी संख्या में उपस्थित होते हैं कि इसे भरा जा सकेगा ,क्योंकि इस भवन को अल्लाह का घर कहा जाता है अतः यहां कोई सभा नहीं हो सकती,यहां वोकेशनल कोर्सेज नहीं चल सकते यहां अस्पताल नहीं हो सकता क्योंकि अल्लाह का घर मात्र नमाज़ पढ़ने मात्र के लिए है ,क्या आप ऐसी मस्जिद चाहते हैं या फिर क्या पैगम्बर ने आपको ऐसी मस्जिद दी थी ? आप मुझे गाली देते हुए भी सच से मुंह नहीं फेर पाएंगे और कह देंगे कि इस्लाम में ऐसी मस्जिद का कोई विचार नहीं है।
आइए अब मुसलमानों में फिर्को की लड़ाई पर आते हैं मुसलमानों में बरेलवी और देवबंदी एक दूसरे को मुसलमान नहीं मानते एक दूसरे को काफिर कहता है और दूसरा उसे मुशरिक कहता है और यह दोनों मिलकर शिया को राफजी, खारजी काफिर कहते हैं,अहले हदीस इन सबको गुमराह और इस्लाम के बाहर बताते हैं सिर्फ इतना ही नहीं यह सब मिलकर कहते हैं कि अल्लाह का घर बनाने में किसी गैर मुस्लिम का धन इस्तेमाल नहीं हो सकता , अगर इनकी बात मानी जाए तो यह सब एक दूसरे को काफिर कहते हैं इस प्रकार जो संप्रदाय किसी दूसरे संप्रदाय जिसे वह काफिर जानता है उसकी बनवाई मस्जिद को मस्जिद नहीं मानेगा अब मै मूल प्रश्न पर आता हूं जिसे भारतीय मुसलमान पिछले 70 सालों से झेलता आ रहा है जी हां आप सही समझे मैं अब बाबरी मस्जिद पर आता हूं जिसे बाबर के एक वज़ीर मीर बाक़ी ने बनवाया जो एक शिया मुसलमान था अब बरेलवी , देवबन्दी अहले हदीस ,सल्फी विचारधारा वाले मुसलमानों की मान्यताओं के अनुसार वह काफिर हुआ अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या मीर बाक़ी की बनवाई मस्जिद को मस्जिद माना जाएगा?
यदि इसे मस्जिद माना जायेगा तो मस्जिद के निर्माण में गैरमुस्लिमों की मदद लेना या तो इन संप्रदायों की मान्यता अनुसार सही होगा या फिर यह शिया मुस्लिम को मुसलमान मानते हैं अगर ऐसा है उन फतवों का क्या जो पहले शियाओ को काफिर करार देने के लिए आए?
यह पहला सवाल है जिसका रटा रटाया जवाब मिलता है कि उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड सुन्नी वक्फ बोर्ड से मुकदमा हार गया और अब यह संपत्ति सुन्नियों की है लिहाज़ा मस्जिद सुन्नी समुदाय की हुई ,अब आप बताइए क्या धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह जवाब तर्कसंगत है तो जवाब मिलेगा नहीं बिल्कुल भी नहीं।तो अब या तो शिया मुसलमान को बाकी के मुस्लिम फिर्के मुसलमान माने या फिर मस्जिद निर्माण में गैर मुस्लिम का दान लिया जा सकता है इसे माने और अगर यह दोनों में से आप कोई भी बात मानने को तैयार नहीं है तो क्या आप खुद से छल नहीं कर रहे यह सवाल खुद से पूछिए।
खैर 1949 से चला आ रहा यह बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद जो न जाने कितनी ज़िंदगियां लील गया कितनी मांग उजाड़ गया कितनी कलाइयां छीनी,कितनी गोदे सूनी हुई आज भी एक अनसुलझी पहेली की तरह हमारे सामने हैं और भारत का सर्वोच्च न्यायालय इसकी सुनवाई अब पूरी करने वाला है हालांकि कोर्ट ने सभी पक्षकारों से न्यायालय के बाहर कोई हल निकालने की बात भी कही इसकी कोशिश भी हुई अब इसका जिम्मा उठाने वालों ने इसे कितनी ईमानदारी से किया नहीं कहा जा सकता लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ और मामला जैसे का तैसा ही रहा अभी लखनऊ में एक कार्यक्रम पांच सितारा होटल में हुआ जिसमें मुसलमानों से मस्जिद की ज़मीन हिन्दू समुदाय को देने की बात कही गई उसके पीछे वजह बताई गई कि अगर मुस्लिम पक्ष मस्जिद का मालिकाना हक का मुकदमा जीत भी जाता है तोभी वहां मस्जिद दुबारा नहीं बन सकती उल्टा और हिंसा होगी जिसमें नुकसान होगा इस प्रस्ताव को रखने वाले रिटायर्ड जज,आई ए एस अधिकारी,शिक्षाविद् ,थे इसमें संघ के लोगों की मौजूदगी भी थी जो इस कार्यक्रम के प्रायोजित होने की ओर इशारा करती है। इसमें जो बात कही गई और जो प्रस्ताव दिया गया वह अधूरा प्रतीत होता है।क्योंकि आम मुसलमानों का सवाल है कि अगर बाबरी मस्जिद को दे दिया तो फिर कल दूसरी मस्जिदों पर भी ऐसा होगा मगर इन बुद्धिजीवियों ने इसका कोई जवाब नहीं दिया है या फिर यह मान लिया जाए कि उन्हें जितनी बात कहने का निर्देश था बात वहीं पर खतम हो गई लेकिन यहीं से एक नई बात भी शुरू हुई।
जिसे मौलाना हसरत मोहानी कौमी वेलफेयर फाउंडेशन ने शुरू किया और मुसलमानों और भारत सरकार को इस मसले पर एक हल निकालने का मसौदा दिया फाउंडेशन के सचिव परमानंद ने कहा कि तमाम माथापच्ची करने के बाद हल सिर्फ यह है कि दिलों को जीतने का प्रयास हो और उसका तरीका सिर्फ इतना नहीं है कि मात्र मुसलमान आगे आकर मस्जिद की जगह पर मंदिर बना लेने पर सहमति बना लें।

ज्ञान व्यापी मस्जिद बनारस

बल्कि यहां पर सभी पक्षकारों के मध्य मध्यस्त की भूमिका स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश निभाए और भारत सरकार इस बात की जमानत दे की सन 1947 से पहले जो भी धार्मिक इमारत जिस तरह थी और वहां जैसे इबादत की जा रही थी जारी रहेगी और उसकी सुरक्षा की संपूर्ण ज़िम्मेदारी भारत सरकार की होगी वह किसी भी परिस्थिति में उसपर कोई निर्णय नहीं लेगी ,फिर महामहिम राष्ट्रपति महोदय गजट नोटिफिकेशन करे ताकि मुसलमानों के इस सवाल पर विराम लगे कि आज बाबरी मस्जिद है कल कोई और जगह होगी जैसे ज्ञानव्यापी बनारस में कोई ऐसा मुद्दा न बने।यदि भारत सरकार और भारत का सर्वोच्च न्यायालय इसपर सहमति देता है तो मुसलमानों को आगे आकर इस समझौते पर हस्ताक्षर करने चाहिए ।

यह एक संपूर्ण बात नजर आती है जो वैसे ही है जैसे संविधान सभा में धारा 370 पर हसरत की बात को उस समय नजरअंदाज किया गया था बाद में लोगों को समझ आया जब मसला उलझ गया उसी तरह अगर सही समय पर यह आवाज़ नहीं सुनी गई और इसे समझा नहीं गया तो फिर पीढ़ियां इस अज़ाब को भुगतेगी।

अब आप यही कहेंगे मस्जिद कैसे दे सकते हैं तो जवाब होगा मस्जिद के लिए अमन को तहस नहस करना क्या जायज़ है?सवाल यह भी है कि सहाबा के जरिए तामीर की गई मस्जिद को भी जब सऊदी सरकार ने शहीद कर वहां सड़क बना दी और मस्जिद शिफ्ट कर दी तो यहां क्यों नहीं हो सकता?
और अगर मुसलमानों पर मस्जिद की हिफ़ाज़त के लिए जान देना फ़र्ज़ है तो फिर क़ुरान में जिस मस्जिद मस्जिद – ए- अक्सा का ज़िक्र है जिस मस्जिद में इमामुल अंबिया की इमामत में सब नबियों ने नमाज़ पढ़ी उसकी हिफ़ाज़त के लिए अब तक पूरी दुनिया के मुसलमान जिहाद के लिए क्यों नहीं निकले ? आखिर कोई निकला हो या न निकला हो लेकिन बाबरी मस्जिद के मामले में आग बबूला हो जाने वाले क्यों नहीं गए?

सवाल सिर्फ इतना नहीं है सवाल यह है कि असीमित खुदा को सीमित घर में कैद करने की साज़िश को आप कब समझेंगे? यदि आप समझते हैं तो मस्जिद को वैसा क्यों नहीं बनाते जैसा नबी ने बना कर दिखाया ? मस्जिद को 100 मिनट से24x 7 कब बनाएंगे ?
आखिर मदरसों की इमारत अलग क्यों होगी जब मस्जिद मौजूद है? अस्पताल खोलने के लिए मुसलमानों के पास मस्जिद है जहां सबको इलाज मिल सकता है ,मुसलमान मैरिज हाल में पैसे कब तक लुटाएगा मस्जिद में निकाह और मैरिज हाल से दूरी कब बना रहे हैं ?
अगर आप यह सब नहीं करना चाहते तो यकीन मानिए या तो आप समझना नहीं चाहते या फिर आप इस साजिश को यूंही कामयाब होते देखना चाहते हैं।
मस्जिद एक खास जगह है अल्लाह की इबादत के लिए जहां उसकी खास रहमत रहती है इसी लिए क़ुरान ने कहा कि ज़ालिम हैं वह लोग जो अल्लाह की मस्जिद को बनाने में रोड़ा लगाते हैं।लेकिन यहां पर भी मस्जिद को अल्लाह का घर नहीं कहा अल्लाह की मस्जिद कहा जो यह साफ करता है कि यह गढ़ा गया शब्द है ।
हालांकि यह सवाल भी खुद को इस्लाम का जानकार कहने वालों से है कि वह इस स्थिति को साफ करे और कोई प्रमाण पेश करें जैसे मौलाना सलमान नदवी ने मस्जिद को स्थानांतरित किया जा सकता है उसके समर्थन में पेश किया।
यदि ऐसा नहीं कर सकते तो मौलाना हसरत मोहानी कौमी वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर गौर किया जाना चाहिए क्योंकि पहला कर्तव्य अमन को कायम करना है,दिलों को तोड़ना सैकड़ों बार काबे को शहीद करने जैसा है और दिलों को जोड़ना इबादत तो अब फैसला आप कीजिए कि इमारत ज़रूरी है या इबादत?
यूनुस मोहानी।।

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