आज लखनऊ में एक बार फिर खूबसूरत छुट्टी के दिन देश की समस्याओं का बाज़ार सजा,जगह जगह की नफरत इकठ्ठा करके सामने रखी गई और खौफ़जदा न हो कहकर लोगों में आने वाले कल के लिए खौफ़ परोसा गया,यह एक ऐसा फैशन है जो हर चुनाव से पहले आता है और चुनाव के बाद खत्म हो जाता है।
शायद आप मेरी बात से सहमत न हों लेकिन मैं यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मुझे आपकी सहमति की दरकार है क्योंकि आपकी असहमति भी ज़रूरी है अगर ऐसा होता है तो यह माना जाना चाहिए कि अभी हम स्वतंत्र समाज में रह रहे हैं और मैं ज़िंदा लोगों से बात कर रहा हूं ,अब आप सोच रहे होंगे कि मैं किस मंडी की बात कर रहा हूं तो आइए पहले इस ख़बर से आपको रूबरू कर दूं।

27 अगस्त को यानी आज लखनऊ के महात्मा गांधी सभागार में एक कांफ्रेंस का आयोजन जमीयत अहले हदीस,जमाते इस्लामी,जमीयत उलमा हिंद और ऑल इण्डिया मिल्ली काउंसिल के संयुक्त तत्वावधान में किया गया जिसे नाम दिया गया ” अमन और इंसाफ कॉन्फ्रेंस, दरअसल देश में इन संगठनों द्वारा आयोजित यह इस नाम की तीसरी कॉन्फ्रेंस थी ,हालांकि इसका कोई व्यापक प्रचार प्रसार नहीं था लेकिन फिर भी पूरा सभागार अंदर से बाहर तक भरा और रिवायती अंदाज में सभी वक्ताओं ने अपनी बात रखी ऐसा कुछ भी नया नहीं हुआ जो पहले नहीं हुआ था।


लेकिन सबसे पहली बात जो इसमें खटकने वाली थी वह इस का नाम ही था और जमीयत उलमा हिंद के जनरल सेक्रेटरी मौलाना हकीमुद्दीन क़ासमी ने अपनी तकरीर में इस नाम में जो खटकने वाला अंश है उसे उजागर किया उनके अनुसार अमन कायम होगा तो इंसाफ का निज़ाम होगा जबकि दुनिया के किसी भी इलाक़े में यह मुमकिन ही नहीं है कि अमन कायम हो जाए बिना इंसाफ के,क्योंकि पहली ज़रूरत इंसाफ है अगर समाज में इंसाफ का निज़ाम है तो अमन कायम होगा अगर नाइंसाफी है तो उग्रवाद,नक्सलवाद आतंकवाद ,गुंडागर्दी होगी खून बहेगा क्योंकि नाइंसाफी इंसान में कुंठा भरती है।

तो यह तो एक बात हुई अब दूसरी बात पर आते हैं कि लखनऊ में इस कॉन्फ्रेंस के आयोजन की आवश्यकता क्या ? यह अपने आप में बड़ा सवाल है आखिर लखनऊ का ही चुनाव क्यों? जबकि यहां सीधे तौर पर बेहतर माहौल है किसी तरह की कोई बदमनी नहीं तो यह जगह क्यों ? इसका जवाब मुश्किल नहीं है क्योंकि जहां से आसानी से संदेश दिया जा सके सत्ताधीशों को जगह का चुनाव वही सही होता क्योंकि जहां बात पहुंचानी है वह जगह यहां से करीब है,खैर आवाम आई और वापसी में एक बिरयानी का डिब्बा लेकर रवाना हो गई ।

सदारती खिताब में जमीयत अहले हदीस हिंद के अमीर मौलाना असगर अली इमाम मेंहदी सल्फी ने अपने रसूख बताए कि वह कहां कहां बैठते हैं और उनकी बात किन किन से होती है और क़ौम को सोरिश और जिहाद के बीच फ़र्क करने की शिक्षा देकर चले गए ,इस पूरी कॉन्फ्रेंस में छुपाया गया एजेंडा आगामी लोकसभा चुनाव गाहे बगाहे वक्ताओं की वाणी से बाहर झांकता रहा जिसे बार बार संचालक को परदे में ढकना पड़ा ,राजनैतिक रूप से चिंतन होना गलत नहीं है लेकिन यह किसी छुपे एजेंडे के तहत हो तो इसमें संदेह का पुट शामिल होता है ऐसा विचारक मानते हैं।

कुल मिलाकर मुसलमानों के रिवायती जलसों की तरह थोड़ा जोश थोड़ा धर्म और थोड़ी नसीहत मिलाकर सियासत की बात कर ली गई और एक संदेश दो तरफा दिया गया एक तरफ मौजूदा सरकार के लिए हिंदुत्व को लामबंद करने का हथियार देना और दूसरी तरफ कांग्रेस वाले गटबंधन के लिए मुसलमानों को इकठ्ठा करने का काम करने का दिखावा करना क्योंकि इसकी आवश्कता अभी समाज को नहीं है,लखनऊ में हरियाणा की इनसाइड स्टोरी सुना कर पहले लोगों के माथे पर बल डाले गए फिर उन्हें डट कर ज़ुल्म का सामना करने की हिदायत बांटी गई और आवाम सोते जागते सुनती रही ।
कुल मिलाकर इस प्रदर्शनी में कितना माल बिका या कितने ऑर्डर मिले इसका खुलासा आगे होगा लेकिन शोर कोई कितना मचा ले मुर्दे नहीं सुनते इस बात का अंदाज़ा अब हो जाना चाहिए ,मंच से इंकलाब का नारा गूंजा ज़रूर लेकिन उसे बुलंद करने वाले हसरत और भगत सिंह का जज़्बा मौजूद नहीं रहा ,दलित चिंतकों ने भी अपनी बात रखी लेकिन उनकी मजबूरी है जब वह अपने ऊपर हुए ज़ुल्म के 5000 साल गिनते हैं उन्हें 1000 साल मुसलमानों की हुकूमत भी याद आ ही जाती है इसलिए इस तरह के सम्मेलन से पहले लोगों को जमीन पर लोगों को झकझोरना होगा उन तक सही सूचनाएं पहुंचाने का तंत्र तैयार करना होगा वरना रिटायर्ड ब्यूरो क्रेट्स और दगी हुई मज़हबी कयादत क़ौम का वक्त भी बर्बाद करेगी और भविष्य भी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here